Book Title: Apbhramsa Bharti 1996 08
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती -8
(1) सामान्य रूप में -
गैल न छांडै सांवरौ, क्यों करि पनघट जाउं ।
इहि सकुचनि डरपति रहौं, धरै न कोउ नाउं ॥' (2) लोक-गीतात्मक पद्धति के साथ -
कहु दिन ब्रज औरो रहौ, हरि होरी है। अब जिन मथुरा जाहु, अहो हरि होरी है ॥ परब करह घर आपने. हरि होरी है।
कुसल छम निरबाहु, अहो हरि होरी है ॥ प्रस्तुत पद में से लोक-गीतात्मक अर्ध पंक्ति को हटा दिया जाय तो विशुद्ध दोहा अपने पूर्ण मुक्तक-रूप में समक्ष आ जाता है -
कहु दिन ब्रज-औरो रहौ, अब जिन मथुरा जाहु ।
परब करहु घर आपने, कुसल छम निरबाहु ॥ इस प्रकार स्पष्ट है कि दोहा छन्द ने अपभ्रंश की मुक्तक-काव्य-परंपरा को हिन्दी में बहुत दूर तक विकसित किया है। विषय-प्रतिपादन की दृष्टि से एक ओर यह वीर तथा श्रृंगार-रस की अभिव्यक्ति का आधार बना है और दूसरी ओर धार्मिक, उपदेशात्मक तथा नीतिपरक कथनों की प्रेषणीयता का भी मूलभूत अबलम्ब सिद्ध हुआ है। परवर्ती हिन्दी-काव्य में इसके ये दोनों ही रूप दर्शनीय हैं। एक का चरम विकास 'वीर-सतसई' तथा 'बिहारी-सतसई' के रूप में देखा जाता है, तो दूसरे का उत्कर्ष सन्त-कवियों के माध्यम से रहीम के दोहों तथा तुलसी-दोहावली आदि में द्रष्टव्य है। छांदसिक-विधान की दृष्टि से सिद्ध तथा कबीर आदि संतों में इसके अपवाद भी मिलते हैं।
वहाँ कहीं अन्त में एक लघु के स्थान पर एक दीर्घ बन गया है तो कहीं चरणों की मात्राओं में वृद्धि हो गई है। यथा -
(1) बरियां बीती बल गया, अरु बुरा कमाया।
हरि जिन छांडै हाथ थै, दिन नेड़ा आया ॥" (2) णउ घरेणउ बणे बोहि हिउ एह परिआणहु भेउ ।
णिम्मल चित्त सहावता करहु अविकल सेउ ॥2 फिर भी, इस दोहा छंद ने स्वयं को लोक-गीतों की शैली में संपृक्त करके मुक्तक-रूप के स्वरूप को और अधिक लभावना तथा मोहक बना दिया है। राजस्थानी के लोकप्रिय प्रणयगीत 'ढोला-मारू-रा-दहा' में इस छंद का इस रूप में प्रयोग अधिक सफल तथा व्यंजनापूर्ण रहा है। लोक-संस्पर्श ने उसके मार्दव में चार चाँद लगा दिये हैं। कबीर की अनेक साखियों पर इसकी छाया स्पष्ट दीख पड़ती है -
राति जु सारस कुरलिया, गुंजि रहे सब ताल । जिनकी जोड़ी बीछड़ी, तिड़का कवण हवाल ॥ 53॥
- ढोला-मारू-रा-दूहा (सभा) पृ. 17 अंबर कुंजा कुरलियां, गरजि भरे सब ताल । जिनि पै गोविन्द बीछुटे, तिनके कौण हवाल ॥
- कबीर-ग्रंथावली (सभा) विरह कौ अंग, पृ. 7