Book Title: Apbhramsa Bharti 1996 08
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 38
________________ अपभ्रंश भारती - 8 मुक्तक के अतिरिक्त प्रबंध प्रणयन में भी इसका प्रयोग हिन्दी-काव्य में देखा जाता है और इसका सूत्रपात भी अपभ्रंशकालीन विविध रचनाओं में हो गया था । वहाँ कतिपय अर्द्धालियों बाद किसी द्विपादात्मक - छन्द के प्रयोग की परंपरा मिलती है। जिनपद्मसूरि के 'स्थूलभद्दफागु' नामक कृति में कुछेक अर्द्धालियों के बाद दोहे का प्रयोग इस रूप में सर्वप्रथम दर्शनीय है। अपभ्रंश - साहित्य में इस प्रकार की शैली को कड़वक-शैली कहा गया है और वह तत्कालीन जैन मुनियों द्वारा प्रणीत विविध रास - काव्यों, चरिउ-काव्यों की प्रबंधपरक प्रधान शैली रही है। यही परम्परा परवर्ती हिन्दी - साहित्य में जायसी आदि सूफियों तथा कबीर की रमैनियों के माध्यम से तुलसीदास तथा अन्य राम कृष्ण - शाखा के भक्त कवियों तक बढ़ आती है। इस परंपरा का संकेत अपभ्रंश की ही पूर्वी सिद्ध-परंपरा में मिल जाता है। यथा एबकु न किंज्जइ मन्त न तन्त । णिअ धरिणी लइ केलि करन्त ॥ णिअ घरे घरिणी जाव ण मज्जइ । ताव कि पंचवण विहरिज्जइ ॥ - जिम लोण विलिज्जइ पाणिसहि तिम घरिणी लइ चित्त । समरस जाइ तक्खणे जइ पुणु ते सम णित्त ॥ 13 25 कबीर में ये कहीं सप्तपदी, कहीं अष्टपदी और कहीं बारहपदी मिलती हैं। प्रबंध प्रणयन के विकास में दोहा छंद का यह शैलीगत प्रयोग निसंदेह नवीन और मौलिक है। अपभ्रंशकालीन प्रबंधों में इन कड़वकों की रचना में दोहा-चौपाई या अर्द्धाली के अतिरिक्त अन्य समान छंदों का भी प्रयोग होता रहा था। परन्तु, हिन्दी के मध्य युग तक आते-आते चौपाईदोहा का प्रचलन और प्रयोग ही प्रधान हो गया था। क्या जायसी आदि सूफियों के प्रेमाख्यानों में और क्या तुलसीदास के 'रामचरित मानस' में और क्या कृष्ण-भक्त नंददास की 'मंजरी' नामक प्रबंधात्मक कृतियों में, सर्वत्र यही प्रयोग दर्शनीय है। नंददास ने तो कड़वक के प्रारम्भ में भी कतिपय दोहों का प्रयोग अपभ्रंश के पुष्पदंत की भाँति किया है और 'रामचरित मानस' में चौपाइयों के बाद अनेक दोहों तथा सोरठा का भी प्रयोग किया है। 'सोरठा' अपभ्रंश का प्रिय छंद तो नहीं, पर मुनि जोइंदु के 'परमात्मप्रकाश' में इसका प्रयोग किया गया है। वस्तुत: यह दोहे का ही प्रतिरूप है। किसी भी दोहे को उलटकर सोरठा बनाया जा सकता है। कहीं-कहीं सिद्धों में इसका प्रयोग अपवाद - जैसा है । परन्तु, हिन्दी में इसका बहुलश: प्रयोग देखा जाता है। इस प्रकार दोहा-छंद यहाँ तक आते-आते मुक्तक के साथ प्रबंध-परंपरा का भी प्रमुख अंग बन जाता है। कतिपय चौपाइयों के बाद यह वही कार्य करता है जो पूर्ववर्ती अपभ्रंश के प्रबन्धों में 'घत्ता' आदि छन्द । चौपाई - मिश्रित अपने इस प्रबंधगत प्रयोग के अतिरिक्त 'रोला' के साथ भी दोहा का प्रबंधात्मक रूप हिन्दी के कृष्ण-भक्त कवि नंददास ने 'भ्रमरगीत' में किया है। प्रथम दोहा और तदुपरि रोला का प्रयोग राजशेखर सूरि ने 'नेमिनाथफागु' में किया है। अपभ्रंश के फागु-काव्यों की यह विशिष्ट शैली रही है और वर्णनप्रधान ही अधिक है । यथा - सरल तरल भुयवल्लरिय सिहण पीणघण तुंग । उदरदेसि लंकाउली य सोहइ तिवलतुरंग ॥ 10 ॥

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