Book Title: Apbhramsa Bharti 1996 08
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती - 8
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जहाँ वनलक्ष्मी के कज्जल-पात्र के समान कृष्णवर्ण कोयल विचरती हैं। जहाँ वायु से आन्दोलित जल मानो सूर्य के शोषण-भय से हिल रहे हैं । जहाँ कमलों ने लक्ष्मी के साथ स्नेह और शशधर के साथ विरोध किया है, यद्यपि लक्ष्मी और शशधर दोनों क्षीर सागर के मन्थन से उत्पन्न हुए हैं और दोनों जल-जन्मा हैं किन्तु अज्ञानता से इस बात को नहीं जानते। जहाँ महिष और वृषभ का युद्धोत्सव हो रहा है। जहाँ मन्थन-तत्पर बालाओं के मन्थनी-रव के साथ मधुर गीत सुनायी पड़ते हैं । यहाँ पर प्राकृतिक दृश्यों द्वारा कवि ने नगर की शोभा श्री का वर्णन किया है। मगध देश में राजगृह की शोभा का वर्णन करते हुए कवि कहता है -
जहिं दीसह तहिं भल्लउ णयरु, णवल्लउ ससि रवि अन्त विहूसिउ । उवरि विलंबियतरणिहे सग्गें,
धरणिहे णावइ पाहुडु पेसिउ ॥14 राजगृह मानों स्वर्ग द्वारा पृथ्वी के लिए भेजा हुआ उपहार हो। इसी प्रकार पोयण (पोदन) नगर का वर्णन करता हुआ कवि कहता है कि वह इतना विस्तीर्ण, समृद्ध और सुन्दर था मानों सुरलोक ने पृथ्वी को प्राभृत (भेंट) दी हो -
तहिं पोयण णामु णयरु अस्थि वित्थिण्णउं ।
सुरलोएं णाइ धरिणिहि पाहुडु दिण्णउं ॥5 नगरों के इन विस्तृत वर्णनों में कवि का हृदय मानव-जीवन के प्रति जागरूक है मानो उसने मानव के दृष्टिकोण से विश्व को देखने का प्रयास किया है।
धवल कवि द्वारा रचित हरिवंशपुराण में कौशाम्बी नगरी का वर्णन मिलता है। इन वर्णनों में एकरूपता होते हुए भी नवीनता दिखायी देती है -
जण धण कंचण रयण समिद्धी, कउसंवीपुरी भुवण पसिद्धी । तहिं उज्जाण सुघण सुमणोहर, कमलिणि संडिहिं णाइ महासर ॥ बाविउ देवल तुंग महाघर, मणि मंडिय णं देवह मंदिर । खाइय वेढिय पासु पयारहो, लवणोवहि णं जंवू दीवहो । तहिं जणु बहुगुण सिय संपुण्णउ, भूसिउ वर भूसणहिं रवण्णउं । कुसुम वत्थ तंबोलहि सुंदर, उज्जल वंस असेस वि तह णर ।
णर णारिउ सुहेण णिच्चंतइं, णिय भवणिहिं वसंति विलसंतई ॥ यश:कीर्ति-रचित हरिवंशपुराण में कवि ने सुन्दर अलंकृत शैली में हस्तिनापुर का वर्णन किया है। परिसंख्यालंकार में नगर का वर्णन दर्शनीय है -
छत्ते सुदंडु जिणहरु विहारु, पीलणु तिलए सीइक्खि फारु । सत्थे सुवु मोक्खु वि पसिद्ध, कंदलु कंदेसु विणउं विरुद्ध ॥ छिर छेउ सालि छेत्तहो पहाणु, इंदिय णिग्गहु मुणिगण हो जाणु । जडया जलेसु मंसु वि दिणेसु, संधीसु सुरागमु तहं ? सुरेसु ॥