Book Title: Apbhramsa Bharti 1996 08
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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जीविउ कासु न वल्लहउँ, धणु पुणु कासु न for a अवसर निवडिअइँ, तिण-सम गणइ विसि
अपभ्रंश भारती
त्याग समाज सापेक्ष । उसके साहित्य का समाजशास्त्र लोकहित की भावना से ओत-प्रोत है। अपभ्रंश के कवि - आचार्य संग्राहक एवं पुरस्कर्ता कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्र का एक दोहा इस संदर्भ में देखना समीचीन होगा - यह तो सर्वविदित ही है कि अपना जीवन किसे प्यारा नहीं होता और धन किसे इष्ट नहीं ? किन्तु अवसर के आ जाने पर विशिष्ट जन दोनों को ही तृणसमान समझता है
दु 1
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वासु महारिसि ऍउ भणइ, जइ सुइ-सत्थु पमाणु ।
मायहँ चलण नवन्ताहं, दिवि दिवि गंगा-हाणु ॥"
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सामाजिक हित का अवसर आने पर, मनुष्यता के संकटग्रस्त होने पर अकाल, महामारी, दुःख-दारिद्र्य के प्रकोप पर विशिष्ट पुरुष अपनी क्षुद्र सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं और अपने जीवन को सर्वहित में न्योछावर कर देने में रंचमात्र संकोच नहीं करते। तुलसीदास ऐसे ही जीवन, कीर्तिभूति को भला मानते हैं जो सुरसरि के समान सबका हित करनेवाला होता है
कीरति मनिति भूति भलि सोई । सुरसरि सम सबकर हित होई ।
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अपभ्रंश के कवि का समाजशास्त्र लौकिक धरातल पर सुदृढ़ है। तथाकथित जो हैं मूल्य उनकी तुलना में वे जीवन-मूल्य कहीं अधिक सार्थक हैं जो सेवा, त्याग, समर्पण में अपने सिर को नवाते हैं, उसका पालन करते हों - वह चाहे माँ हो या मातृभूमि । अपभ्रंश के व्यास जैसे महाऋषि कहते हैं कि चाहे श्रुति हो अथवा शास्त्र सभी इस बात का प्रमाण उपस्थित करते हैं कि माता के चरणों में सेवाभाव से नम्रता के साथ सिर नवाते हैं
सिरि चडिया खंति - प्फलई, पुणु डालइँ मोडंति । तो वि महदुम सउणाहँ, अवराहिउ न करंति ॥
जैन अपभ्रंश साहित्य में शलाका पुरुषों के जीवनचरित की गाथा, पुराण, महापुराण, चरित, चपई, फागु आदि काव्यरूपों में तो गाई ही गई है, कथा के माध्यम से सामान्य वणिकजनों की भी कथा कही गई है। धनपाल की 'भविष्यदत्त कथा' प्रसिद्ध ही है। इसमें भविष्यदत्त की कथा शुद्ध लौकिक आधार पर कही गई है जो अपने सौतेले भाई बंधुदत्त के द्वारा कई बार धोखा देने के बावजूद अपने अच्छे कर्मों के कारण सुखी जीवन व्यतीत करने में सफल होता है । जैसा कहा गया है कि क्षमा बड़न को चाहिये, यदि इसे अपभ्रंश की उक्ति के माध्यम से कहें तो हेमचन्द्र का यह दोहा बरबस याद आ जाता है कि 'शकुनि ( पक्षीगण ) महान द्रुम के सिर पर चढ़ते हैं उसके फल को भी खाते हैं, फिर चहलकदमी करते हुए उसकी शाखाओं को भी तोड़ देते हैं फिर भी महान वृक्ष (पुरुष) पक्षियों का कोई अपराध नहीं गिनते, उनका अहित नहीं चाहते
भविष्यदत्त और ऐसे ही अनेक महापुरुष इस चारित्रिकगरिमा से भरे पड़े हैं पर इसके लिए जो सामाजिक पृष्ठभूमि है वह असामाजिक तत्वों के घेरे को तोड़ती हुई उभड़ती है । द्वन्द्वात्मक स्थिति को तोड़ती हुई बुराई पर भलाई की जीत हासिल करती है। धनपति की दूसरी पत्नी जहाँ अपने बच्चे बंधुदत्त को सौतिया डाह के कारण बुरी शिक्षा देती है वहीं कमल श्री अपने पुत्र धनपाल