Book Title: Apbhramsa Bharti 1996 08
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 17
________________ अपभ्रंश भारती -8 प्रचलित लोकधुनों को काव्य का रूप दिया। संधि, कुलक, चउपई, चौपाई, आराधना, रास, चाँचर, फाग, स्तुति, स्तोत्र, कथा, चरित, पुराण आदि काव्यरूपों में सामाजिक जीवन और जगत की अनेक भावनाओं, विचार-सरणियों, चिन्तन की चिन्तामणियों, सहज साधना एवं सिद्धिपद्धतियों, धार्मिक आदर्शों, सांस्कृतिक सरणियों को सशक्त एवं रागरंजित वाणी प्रदान की। नाना शलाका पुरुषों, तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों, बलदेवों, वासुदेवों और प्रतिवासुदेवों के चरित्रों से संस्कृति का मधुछत्र तैयार कर दिया। ऋषभदेव, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ तथा महावीर स्वामी के त्याग एवं अहिंसामय जीवन से भारतीय काव्य जाज्वल्ययान हो उठा। लौकिक रस की धारा प्रवाहित हई। वणिक पत्रों तथा ऐसे ही साधारणजनों के जीवन की गाथा गाई गई। एक ऐसे समाज और संस्कृति का निर्माण हुआ जिससे परवर्ती साहित्य को जीवन्त प्राणधारा ही नहीं मिली अपितु ऐतिहासिक कड़ी की ऐसी लड़ी जुड़ी कि वह जीवन्त और प्राणवन्त बन गया। . किसी भी भाषा के साहित्य का समाजशास्त्र समग्रता अथवा 'टोटेलिटी' की अपेक्षा रखता है। इस अपेक्षा में यह चिंतना निहित है कि जीवन का कितना विस्तार अपनी सच्चाई और गहराई के साथ उमडा और उभडा है। समाज की स्थिति सर्वत्र सपाट नहीं होती। वह अनेक तंतओं से कहीं बिखरी, कहीं जुड़ी, कहीं विश्लिष्ट, कहीं संश्लिष्ट होती है। अर्थात् सामाजिक जीवन अनेकवर्णी और बहुआयामी होता है। यही जीवन जब कवि की रचना में उतरता है तो कलात्मक पुनर्रचना का आकार लेता है। उसमें जीवन रहता है और जीवन का संस्कार भी। उसमें समाज रहता है और समाज का प्रगतिशील रूपान्तरण भी। अपभ्रंश भाषा और साहित्य इन दोनों रूपों से ओत-प्रोत है। जैन अपभ्रंश का अधिकांश भाव धर्म एवं संस्कृति की भावना से ओत-प्रोत है। पं.रामचन्द्र शुक्ल इसी प्रवृत्ति के कारण साहित्य के क्षेत्र में इसका समावेश नहीं करना चाहते थे। दूसरी ओर सिद्ध-नाथ साहित्य को योग-साधना, तंत्र-मंत्र का जाल बताते हुए इन्हें भी साहित्य से बाहर रखना चाहते थे। पर आगे के विद्वानों को यह बात श्रेयस्कर नहीं प्रतीत हई। इस भावना का समुचित प्रतिवाद करते हुए पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने मूल्यांकनपरक दृष्टिकोण के साथ कहा कि जिस अपभ्रंश साहित्य में धर्म-भावना प्रेरक शक्ति के रूप में कार्य कर रही हो और साथ ही जो हमारी सामान्य मनुष्यता को आन्दोलित, मथित और प्रभावित कर रही हों। इस दृष्टि से अपभ्रंश की कई रचनाएँ जो मूलतः जैनधर्म-भावना से प्रेरित होकर लिखी गई हैं, निःसन्देह उत्तम काव्य हैं। इस पर और जोर देते हुए उन्होंने कहा कि इधर जैन अपभ्रंश-चरितकाव्यों की जो विपुल सामग्री उपलब्ध हुई है वह सिर्फ धार्मिक सम्प्रदाय की मुहर लगाने मात्र से अलग कर दी जाने योग्य नहीं है। स्वयम्भू, चतुर्मुख, पुष्पदन्त और धनपाल जैसे कवि केवल जैन होने के कारण ही काव्यक्षेत्र से बाहर नहीं चले जाते। धार्मिक साहित्य होने मात्र से कोई रचना साहित्यिक कोटि से अलग नहीं की जा सकती। यदि ऐसा समझा जाने लगे तो तुलसीदास का रामचरित मानस भी साहित्य क्षेत्र में अविवेच्य हो जायेगा और जायसी का पद्मावत भी साहित्य-सीमा के भीतर नहीं घुस सकेगा। प्राचीन साहित्य का हर मर्मज्ञ विद्वान समाज-शास्त्र के इस पहलू से परिचित है कि अपभ्रंश साहित्य की गतिवर्द्धक प्रेरणा धर्म-साधना ही रही है। स्वयं शुक्लजी ने जिन चार विशेष प्रवृत्तियों का उल्लेख किया है उसमें पहला स्थान धर्म का ही है; नीति, शृंगार, वीर का बाद में। परन्तु इस धर्म का जो साहित्यशास्त्र बना वह लोक के साथ जुड़कर समाज के साथ घुल-मिलकर। चाहे हर्ष हो या विषाद, दुःख हो या सुख, प्रेम हो अथवा

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