Book Title: Apbhramsa Bharti 1994 05 06
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश-भारती 5-6
मुनि रामसिंह की एकमात्र कृति पाहुडदोहा ने उन्हें अध्यात्म और भक्ति में समरस होकर रहस्य की चरम स्थिति को प्राप्त करने का मार्ग निर्दिष्ट किया। धार्मिक अंधविश्वासों, रूढ़ियों
और परम्पराओं का विरोधकर धार्मिक बाह्याडम्बरों और पाखंडों पर तीखा प्रहार करते हुए उन्होंने चित्त की शुद्धि पर बल दिया और संसारी प्राणी को अपना आत्मिक कल्याण करने का नया सन्देश दिया।
संत-साहित्य की परम्परा आचार्य परशुराम चतुर्वेदी आदि जैसे प्रतिष्ठित हिन्दी साहित्य के विद्वानों ने संवत् 1200 से प्रारम्भ की है और इन्होंने जयदेव को प्रथम संत स्वीकार किया है। ऐसा लगता है इन विद्वानों ने अपने विचार व्यक्त करते समय जैन संत-परम्परा को ध्यान में नहीं रखा। जैन साहित्य के देखने से अध्येता को यह स्पष्ट आभास होने लगेगा कि जैन संतों का प्रारम्भ लगभग ईसा की प्रथम शती से हो जाता है। इसके आदि संत के रूप में आचार्य कुन्दकुन्द को स्वीकार किया जा सकता है जिन्होंने प्रवचनसार, समयसार, नियमसार और अष्टपाहुड में चेतन तत्त्व के विभिन्न आयामों को दिग्दर्शित किया है। उन्हीं की लंबी परम्परा में योगीन्दु, रामसिंह, आनंदतिलक, बनारसीदास, आनंदघन, भूधरदास, भैया भगवतीदास, धानतराय आदि शताधिक संत कवि हुए हैं जिनका योगदान संत-परम्परा के विकास में अविस्मरणीय है। इस परम्परा के आधार पर हम सं-परम्परा को अधिक नहीं तो लगभग छठी शताब्दी से तो प्रारंभ कर ही सकते हैं और प्रारम्भिक प्रतिष्ठात्मक के रूप में योगीन्दु को स्वीकार किया जा सकता है। मुनि रामसिंह ने इसी परम्परा को विकसित किया और उत्तरकालीन संत उन्हीं के चरणचिह्नों पर बढ़ते हुए दिखाई देते हैं।
हिन्दी साहित्य की भक्तिकालीन संत-परम्परा की पृष्ठभूमि में विशुद्धि तत्त्व सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रहा है। योगीन्दु इसके प्रस्थापक थे, मुनि रामसिंह संयोजक थे और कबीर ने इसके प्रचारक के रूप में काम किया था। संत यधपि किसी न किसी संप्रदाय से जुड़ा रहता है पर विशुद्धि सापेक्षता में वह असाम्प्रदायिक ही रहता है । कबीर का व्यक्तित्व संप्रदाय से ऊपर उठा हुआ है। जैनधर्म संप्रदाय होते हुए भी सम्प्रदायातीत है और कदाचित् उसके इसी तत्त्व ने कबीर को आकर्षित किया हो। यही कारण है कि उनकी विचारधारा पूर्ववर्ती जैन संतों से बहुत मेल खाती है। यह संभावना इसलिए और भी बढ़ जाती है कि कबीर के काल में (लगभग सन् 13981518 ई.) में पंजाब जैन संस्कृति का एक सुदृढ़ केन्द्र रहा है। समीक्षकों के इस विचार से हम भली-भांति परिचित हैं कि कबीर ने अपने निर्गुण पंथ की स्थापना में नाथों के हठयोग, वैष्णवों की सरसता, शंकराचार्य के मायावाद और सूफियों के प्रेमवाद का आश्रय लिया है। परन्तु आश्चर्य है कि किसी ने उनपर जैनधर्म के प्रभाव की बात नहीं कही। वस्तुत:कबीर-साहित्य की पृष्ठभूमि में जैन संत-परम्परा, विशेषतः मुनि रामसिंह के विचारों ने नींव के पत्थर का काम किया जो स्वयं तो प्रच्छन्न रहें पर अपनी सबल पीठ पर निर्गुण संत-परम्परा के भव्य प्रासाद को निर्मित कर दिया। ___ संत कवि 'कागद की लेखी' की अपेक्षा 'आंखिन देखी' पर अधिक विश्वास किया करते थे।स्वानुभूति उनका विशेष गुण था। यह गुण उसी को प्राप्त हो सकता है जो राग-द्वेषादि विकारों