Book Title: Apbhramsa Bharti 1994 05 06
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश-भारती 5-6
संदेश-रासक मुसलमान कवि अ६हमाण (अब्दुल रहमान) द्वारा रचित और मुनि जिनविजयजी द्वारा संपादित शृंगारप्रधान रासक काव्यों का महत्त्वपूर्ण एवं प्रतिनिधि ग्रंथ है। प्रतिनिधि ग्रंथ इसलिए है कि जिन शृंगारपरक रासक काव्यों के लिखे जाने की इस देश में परम्परा थी उनमें से अभी तक केवल संदेश-रासक ही प्राप्त हो सका है। अतएव संदेश-रासक का महत्त्व हम इसी बात से आँक सकते हैं कि अब तक प्रकाश में आनेवाले सभी रास काव्यों में केवल यही ऐसा काव्य है जिसे पूर्ण लौकिक काव्य कहा जा सकता है। इस काव्य में उत्कृष्ट काव्यकौशल और निश्छल लोकतत्त्वों का मणिकांचन संयोग है। फलतः संदेश-रासक एक ओर जहाँ अपने काल की भारतीय काव्यगरिमा का परिचायक है वहाँ दूसरी ओर वह जनजीवन की अकृत्रिम झाँकियाँ भी प्रस्तुत करता है। संदेश-रासक मुक्तकप्रधान या क्षीण प्रबंध-धर्मा मुक्तक काव्य है, जिसके अधिकांश छंदों का सौन्दर्य कथासूत्र से अलग करके पढ़ने से भी ज्यों का त्यों बना रहता है। इनके छंदों की तुलना उन मुक्तामणियों से की जा सकती है जो एक सूत्र में ग्रथित होने पर कंठहार के रूप में भी सुशोभित होते हैं और बिखरकर अलग हो जाने पर भी सुन्दर और मूल्यवान बने रहते हैं।
प्रथम प्रक्रम के आरंभिक अंश में ही संदेश-रासक के कवि ने अपना परिचय इस प्रकार दिया है
पच्चाएसि पहूओ पुव्वपसिद्धो य मिच्छदेसोस्थि । तह विसए संभूओ आरद्दो मीरसेणस्स ॥ तह तणओ कुलकमलो पाइय कव्वेसु गीयबिसयेसु ।
अदहमाण पसिद्धो संनेह रासयं रइयं ॥' पश्चिम में प्राचीनकाल से अत्यंत प्रसिद्ध जो म्लेच्छ देश है उसी प्रदेश में 'मीरसेण' नामक तंतुवाय (आरद्द) उत्पन्न हुआ। उसके पुत्र अद्दहमाण ने, जो अपने कुल का कमल था और प्राकृत काव्य तथा गीत-विषय में सुप्रसिद्ध था, संदेश-रासक की रचना की।
संदेश-रासक जैसा कि इसके नाम से प्रकट होता है - रासक काव्य है। कथानक के आधार पर संदेश-रासक प्रेम-काव्य है। उसमें नायिका के विरह-निवेदन की प्रमुखता है। संदेश-रासक में कुल बाईस प्रकार के छंद प्रयुक्त हुए हैं, किन्तु सर्वाधिक मात्रा में 'रासा' छंद ही प्रयुक्त हुआ है। ध्यानपूर्वक देखने से पता चलता है कि इस छंद का प्रयोग अद्दहमाण ने विशिष्ट स्थलों पर एक विशेष प्रकार का प्रभाव उत्पन्न करने के लिए किया है। प्रथम प्रक्रम में रासा छंद का प्रयोग बिलकुल नहीं मिलता। वहाँ कवि को आत्मनिवेदन करना है। वह अपने ग्रंथ की और पाठक की योग्यता आदि का वर्णन गाहा, रडा, पद्धड़िया और दुमिला में करता है। द्वितीय प्रक्रम में भी प्रथम दो छंद रडा हैं। किन्तु नायिका की चेष्टाओं का वर्णन करते ही कवि 'रासा' छंद का प्रयोग प्रारम्भ कर देता है। नायिका पथिक को देखकर मंथरगति छोड़कर द्रुतगति से क्या चलने लगी कि छंद भी नायिका की गति से चलने लगा -
तं जि पहिय पिक्खेविणु पिअउक्कंखिरिय । मंथर गय सरलाइवि उत्तावलि चलिय ॥