Book Title: Apbhramsa Bharti 1994 05 06
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश-भारती 5-6
. इस प्रकार श्रृंगार के मुख्य भेद संयोग और वियोग ही हैं। आचार्य रुद्रट ने संयोग और विप्रलंभ की चर्चा करते हुए लिखा है -
संभोगः संगतयोर्वियुक्तयोर्यश्च विप्रलंभोऽसौ ।
पुनराप्येष द्विधा प्रच्छन्नश्च प्रकाशश्च ॥2 अर्थात् संग पुरुष और नारी के रति व्यवहार को संभोग (संयोग) और वियुक्त पुरुष तथा नारी के रति व्यवहार को विप्रलंभ कहते हैं। ये दोनों फिर प्रच्छन्न और प्रकाश के नाम से दो प्रकार के हैं। यहाँ रुद्रट ने प्रच्छन्न और प्रकाश के तात्पर्य को स्पष्ट नहीं किया। संभवतया इस प्रभेद का निर्धारण प्रेमियों के एकांत में परस्पर व्यक्त हाव-भाव प्रकाशित तथा भीड़ में प्रच्छन्न प्रेम की स्थिति के आधार पर किया गया है। लेकिन इस परिभाषा से स्पष्ट यह आशय निकलता है कि जहाँ नायक-नायिका एक-दूसरे के सामीप्य में न रहकर रति का अनुभव करें वहाँ विप्रलंभ होगा।
इस प्रकार श्रृंगार के प्रमुखतया दो भेद - संयोग और वियोग का ही अधिक प्रचलन देखा जाता है। अपभ्रंश कवियों ने भी मुख्य रूप से इन्हीं दो भेदों को अपनाया है एवं इन्हीं के अनुसार अपने वर्णन किये हैं। श्रृंगार के अवयव
श्रृंगार रस के प्रसंग में आचार्य भरतमुनि द्वारा प्रतिपादित सूत्र - "विभावानुभावव्यभिचारि संयोगाद्रसनिष्पतिः" को ही प्रमुख आधार माना जाता है। श्रृंगार रस की निष्पत्ति के लिए विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भाव अथवा संचारी भाव - इन तीनों का समुचित संयोग होना आवश्यक माना गया है। यहाँ विषय के संदर्भ में इन प्रमुख अवयवों पर संक्षिप्त विचार करना आवश्यक है - विभाव
जिसके कारण हृदय में रस का प्रादुर्भाव होता है उसे विभाव कहते हैं। इसके दो भेद हैं - आलंबन और उद्दीपन -
जाको रस उत्पन्न है, सो विभाव उर आनि ।
आलम्बन उद्दीपनो, सो द्वै विधि पहिचानि ॥3 आलम्बन विभाव के अंतर्गत नायक और नायिका - दो भेद स्वरूप निरूपित किये जाते हैं एवं चन्द्र, सुमन, सखि, दूति, अंगरागादि-प्रसाधन-उद्दीपन विभाव के अंतर्गत आते हैं -
जानी नायक नायिका, रस-सिंगार-विभाव ।
चन्द्र सुमन सखि दूतिका, रागादिको बनाव ॥14 भिखारीदास ने विभाव के दो भेदों (आलम्बन और उद्दीपन) का यधपि यहाँ नाम नहीं लिया है किन्तु दोनों विभावों की व्यंजना अनायास ही हो जाती है। नायिका-वर्णन ___ भरतमुनि ने प्रकृति, यौवनानुसार, सामाजिक दृष्टि से तथा शील और अवस्था के अनुसार नायिकाओं के भिन्न-भिन्न भेदों की कल्पना की है। इन भेदों में से परवर्ती आचार्यों ने रसिकता