Book Title: Apbhramsa Bharti 1994 05 06
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 51
________________ 40 अपभ्रंश-भारती 5-6 रम्यदेश कलाकालवेषभोगादि सेवनैः प्रमोदात्मा रतिः सैव यूनोरन्योन्यरक्तयोः प्रहृष्यमाणः श्रृंगारो मधुरांग विचेष्टितैः । भोज ने श्रृंगार को और अधिक प्रकर्ष प्रदान किया। उन्होंने अहं भाव के आत्मस्थित गुण विशेष को श्रृंगार की संज्ञा देकर उसकी व्यापकता का विस्तार किया। उनके अनुसार - अहंबोध युक्त आत्मयोनिमनसिज के प्राण को ही आचार्यों ने श्रृंगार की संज्ञा प्रदान की है। यह श्रृंगार आत्मा में स्थित उसी आत्मा का विशिष्ट गुण है।श्रृंगार आत्मशक्ति के द्वारा रसनीय होने के कारण ही रस कहलाता है। रस के इस आस्वाद-बोध से युक्त होने के कारण ही सहृदय को रसिकसंज्ञा प्राप्त होती है - आत्मस्थितं गुणविशेषमहंकृतस्य श्रृंगारमाहुरिह जीवितमात्मयोनेः । तस्यात्मशक्तिरसनीय तथा रसत्वं युक्तस्य येन रसिकोऽयमिति प्रवादः ॥ आचार्य विश्वनाथ ने काम के अंकुरण को ही श्रृंगार की संज्ञा प्रदान करते हुए कहा है कि मन्मथ का उद्भेद ही श्रृंग कहलाता है। इस विकास का कारण ही श्रृंगार कहलाता है। श्रृंग+आर (आगमन) उत्तम या आदर्श प्रकृति का भाव होने के कारण यह रसरूप में स्वीकृत किया जाता है - भंग हि मन्मथोझेदस्तदागमनहेतुकः । उत्तम प्रकृतिप्रायो रसः श्रृंगार इष्यते ॥ भानुदत्त ने श्रृंगार को अत्यन्त परिष्कृत रूप देते हुए कहा कि युवा दम्पति का परस्पर एवं सर्वथा पूर्ण प्रकष्ट आनंदात्मक भाव अथवा उनका परम पवित्र एवं अखण्ड आनंद अनुरागानुभव ही श्रृंगार रस है - "यूनोः परस्परं परिपूर्णः सम्यक् सम्पूर्ण रति भावो वा श्रृंगारः।” पंडितराज जगन्नाथ ने श्रृंगार के कलेवर को और भी स्पष्ट करते हुए लिखा है - प्रेम की संज्ञा प्राप्त करनेवाली विशिष्ट प्रकार की चित्तवृत्ति ही, अपने सहज एवं स्थिर अस्तित्व के कारण क्रीड़ात्मिका रति का स्थायीभाव बनती है - "स्त्रीपुंसयोरन्योरन्यालम्बनः प्रेमाख्याश्चित्तवृत्तिविशेषो रतिः स्थायिभावः। गुरुदेवतापुत्राद्यालम्बनस्तु व्यभिचारी।" महाराज भोज की परिभाषा के अतिरिक्त उपर्युक्त समस्त आचार्यों की परिभाषाओं में पर्याप्त साम्य है। लगभग सभी ने श्रृंगार की पुष्टि के लिए स्त्री-पुरुष को आलम्बन-रूप में स्वीकार किया है जिसका अभिप्राय यह है कि समान लिंगवाले व्यक्तियों की मित्रता अथवा प्रीति को श्रृंगार के रूप में ग्रहण नहीं किया जा सकता। तथा दो भिन्न लिंगवाले व्यक्तियों का प्रेम भी वासना-विहीन हो सकता है, जैसे - भाई और बहन का प्रेम। किन्तु स्थान-स्थान पर विभिन्न विद्वानों द्वारा काम, संभोग, शारीरिक चेष्टाओं आदि के उल्लेख से यह बात स्वतः ही सिद्ध हो जाती है कि श्रृंगार के अंतर्गत काम-समन्वित प्रेम ही लिया जा सकता है। पंडितराज जगन्नाथ

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