Book Title: Apbhramsa Bharti 1994 05 06
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 82
________________ 71 अपभ्रंश-भारती 5-6 गुणुदीसइ कवणु उरोरुहाह, परिपूरिय पूयएँ वणणिहाहैं । घणमंसपवड्ढिय पिंडयाह, को करइ रई तहँ दूसियाह । · कडिमंडलु भणियउ किं बुहेहि, परिसवइ असुद्धउ बिहिं मुहेहि । वसरुहिरमंसहड्डाई जेत्थु, भणु सुद्धिहे कारणु कवणु तेत्थु । जइ भिंतरु बाहिरु विहि करंतु भणु जणवउ को तहिं रइ सरंतु । 9.11.1-9 - इस देह में कहो कौनसा गुण दिखाई देता है ? जो स्वभाव से अशचि है उसका क्या मण्डन ? जो तरल और विभ्रमपूर्ण नेत्र हैं वे दूषण-समूह से दूषित हैं। बताओ नासिका रन्ध्र में क्या विशुद्धि है ? जहाँ स्पष्ट ही अशुद्ध श्लेष्मा बहता रहता है। अधर में लोग क्यों अमृत गुण की कल्पना करते हैं जबकि वहाँ पर लार का प्रवाह घूमता रहता है। स्तनों में कौनसा गुण दिखाई देता है ? जबकि वे पीव से भरे हुए फोड़ों-सदृश हैं। सघन मांस के बढ़े हुए दूषित पिण्डों से कौन रति करे ? बुद्धिमानों (कवियों) ने कटि मण्डल का क्यों वर्णन किया जबकि वहाँ दो-दो गुह्य मुखों से अशुद्ध मल बहता है। जिस शरीर में वसा, रुधिर, मांस और हड़ियाँ हैं वहाँ कहो शुद्धि का कौनसा कारण है ? यदि भीतरी व बाहरी विधि (शुद्धि) का विचार करें तो कौन मनुष्य शरीर के साथ रति करेगा ? अशुचि भावना का प्रयोजन है शरीरादि संयोगों की अशुचिता और निजस्वभाव की शुचिता को समझकर संयोगों से विरत हो निजस्वभाव में रत होकर अनन्त सुखी हों। संसारी प्राणी के स्त्री, पुत्र, मित्र, मकान, जमीन, जायदाद,रुपया-पैसा और शरीर का संयोग है। इन संयोगों की अनित्यता को अनित्यभावना में, अशरणता को अशरण भावना में, दुःखरूपता को संसार भावना में अभिव्यक्त किया गया है। एकत्व भावना में स्वयं का एकत्व, अन्यत्व भावना में संयोगों से भिन्नत्व और अशुचि भावना में शरीर (संयोगों) की मलिनता (विभावादि) का चित्रणकर कवि ने सहृदय का शम' नामक स्थायी भाव उदबुद्ध कर शान्तरस की अनुभूति करायी है। साथ ही वैराग्योत्पादक सन्देश दिया है। यह सन्देश पाठक/श्रोता की भावभूमि को सरल एवं तरल बनाकर उसे जोतने और सिंचित करने का कार्य करता है। संसार, शरीर एवं भोगों से वैराग्यभाव जागरित करता है। संयोगों के प्रति अनादिकालीन संयोगाधीन दृष्टि को समाप्तकर अन्तरोन्मुख होने की प्रेरणा देता है। अन्तरोन्मुख होने पर ही सुख-शान्ति मिलती है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि कवि ने करकण्डुचरिउ में अनुप्रेक्षा का वर्णन कर आत्मार्थी को मानसिक दैनिक भोजन प्रदान किया है और संसार, शरीर व भोगों में लिप्त जगत को अनन्त सुखकारी मार्ग में प्रतिष्ठित करने का सफल प्रयास किया है। 1. हिन्दी काव्यशास्त्र का इतिहास, पृ. 372, डॉ. भागीरथ मिश्र, लखनऊ विश्वविद्यालय, _ वि. सं. 2005 । 2. काव्यप्रकाश, 1.2, आचार्य मम्मट, ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी, 1960 । 3. साहित्य दर्पण, 1.2, विश्वनाथ, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1, वि. सं. 2020 ।

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