Book Title: Apbhramsa Bharti 1994 05 06
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

View full book text
Previous | Next

Page 88
________________ अपभ्रंश-भारती 5-6 77 दीसइ उययसिहरें रविकेसरि छुडु छुडु रत्तचूलवासिय किर, छुडु पचलिय पवासिय । उट्ठिय कायसद्द भयवेविर, छुडु णिल्लुक्क कोसिय । ता जगसरवरम्मि, णिसि कुमुइणि, उडु पप्फुल्लकुमुयउद्धासिणि । उम्मूलिय पच्चूसमयंगे, गमु सजिउ ससिहंसविहंगें। बहलतमंधयारवारणअरि, दीसइ उययसिहर रविकेसरि । पुव्वदिसावहूहि अरुणच्छवि, लीलाकमलु व उब्भासइ रवि । सोहम्माइकप्पफलु जोयहो, कोसुमगुंछु व गयणासोयहाँ। दिणसिरिविदुमवेल्लिहें कंदु व, णहसिरि घुसिणललामय बिंदु व । सुदंसणचरिउ, 5.10 - रक्तचूड़ (मुर्गे) द्वारा संकेत पाकर प्रवासी चल पड़े। कौवों के शब्द उठे और शीघ्र ही भय से काँपते हुए कौशिक (उल्लू) छिप गये। तभी जगरूपी सरोवर से तारारूपी प्रफुल्ल कुमुदों से उद्भासित रात्रिरूपी कुमुदिनी को प्रत्यूषरूपी मातंग ने उन्मूलित कर डाला। शशिरूपी हंस पक्षी ने गमन की तैयारी की। सघनतम अंधकाररूपी गज का वैरी रविरूपी सिंह उदयाचल के शिखर पर दिखाई दिया। पूर्व दिशारूपी वधू के लीलाकमल के सदृश अरुणवर्ण रवि उदित हुआ। जैसे मानो योग का सौधर्म आदि स्वर्गरूप फल हो, गगनरूपी अशोक का पुष्पगुच्छ हो, दिनश्रीरूपी प्रवाल की बेल का कंद हो तथा नभश्री के भाल का केसरमय ललामबिन्दु हो। अनु. - डॉ. हीरालाल जैन

Loading...

Page Navigation
1 ... 86 87 88 89 90