Book Title: Apbhramsa Bharti 1994 05 06
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश - भारती 5-6
नायिका का किसी अन्य के द्वारा प्रवासी प्रिय के पास संदेश-प्रेषण एक ऐसी महत्त्वपूर्ण और व्यापक काव्यरूढ़ि रही है कि इसका उपयोग प्रेमकाव्य के रचयिताओं ने जी खोलकर किया है। इन कवियों ने संदेश ले जाने के लिए हंस, शुक, भ्रमर, मेघ आदि मानवेतर जीवों तथा अचेतन वस्तुओं को भी इस कार्य में नियोजित किया है। प्रेम की भूमिका पर जड़-चेतन के एकत्व का यह विधान भारतीय कवि हृदय की महत्त्वपूर्ण विशेषता है।
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संदेश - रासक की नायिका प्रोषितपतिका है। प्रिय ने परदेश से संभवतः कोई संदेश नहीं भेजा था । कवि ने प्रारंभ में ही उस वियोगिनी के रूप-वर्णन द्वारा व्याकुलता और विरहकातरता व्यंजित कर दी है
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दीणाणहि पहुणिहइ, जलपवाह पवहंति दीहरि । विरहग्गहि कणयंगितणु तह सामलिमपवन्नु । णज्जइ राहि विडंबिअउ ताराहिवइ सउन्नु ॥24॥ फँसइ लोयण रुवइ दुक्खत्त, धम्मिल्लपमुक्कमुह विज्जंभइ अणु अंगु मोडइ । विरहानल संतविअ, ससइ दीह करसाह तोडइ । इम मुद्धह विलवंतियह महि चलणेहि छिहंतु । अद्धड्डीणउ तिणि पहिउ पहि जोयड पवहंतु ॥ 25 ॥
वह दीनमुखी आँखों से जलधार बहाती हुई अपने पति की राह जोह रही है। विरहाग्नि से उसके शरीर की हेम आभा श्यामल हो गयी है मानो चन्द्रमा को राहु ने पूर्णरूप से ग्रस लिया हो। वह दुःखार्ता होती है और आँखों को पोंछती जाती है। उसका जूड़ा खुला हुआ है, वह अंगों को पीड़ा के कारण मोड़ती है, विरहानल से संतप्त वह लम्बी साँसें ले रही है और अपनी अंगुलियों को तोड़ रही है।
पथिक को देखकर पति के पास संदेश भेजने की उत्कंठा से वह वियोगिनी नायिका मंथर गति को सरल करके उतावली से चल पड़ी। शीघ्रता के कारण उसके मनोहर चंचल नितंबों से करधनी खिसककर गिर पड़ी जिससे उसकी किंकिणियों का स्वर फैल गया। उस सुन्दरी ने जैसेतैसे अपनी मेखला को स्थिर किया ही था कि स्थूलमुक्ताओं की हार-लता टूट गयी । बेचारी ने किसी तरह जल्दी में कुछ मुक्ताएँ वैसे ही पड़ी रहने दीं, कुछ उठायीं, तब तक चरणों की दुर्बलता के कारण नूपुर ही निकल गया -
तं जि पहिय पिक्खेविणु पिअउक्कंखिरिय मंथरगय संरलाइवि उत्तावलि चलिय । तह मणहर चल्लंतिय चंचलरमणभरि, छुडवि खिसिय रसणावलि किंकिणरव पसरि ॥26॥ तं जं मेहल ठवइ गंठि णिटठुर सुहय, तुडिय ताव थूलावलि णवसरहारलय । सातिवि किवि संवरिवि चइवि किवि संचरिय, णेवर चरण विलग्गिवि तह पहि पंखुडिय ॥ 27 ॥