Book Title: Apbhramsa Bharti 1994 05 06
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 72
________________ अपभ्रंश-भारती 5-6 61 वीर मनोभूमि का निर्माण हो गया था। रण और मरण को समान मानकर वीरांगना पलायन की अपेक्षा मरण के वरण पर बल देती है। यथा - जइ भग्गा पारक्कडा तो सहि मज्झु पिएण । अह भग्गा अम्हहं तणा तो तें मरिअडेण ॥ - हे सखी ! यदि शत्रु भागे हैं तो मेरे प्रिय (के डर) से और यदि हमारे लोग भागे हैं तो उसके (प्रिय के) मारे जाने से। वीरांगना के उपर्युक्त हृदयोद्गार में यह विश्वास कूट-कूटकर भरा हुआ है कि उसका वीर पति लड़ना और मरना ही जानता है। उसने भागना नहीं सीखा है। प्रतिपक्षी से युद्ध में तिल-तिल करके कट जाना परन्तु मुंह न मोड़ना उक्त वीरांगना के युद्धवीर कांत का अमर संदेश है। वीर पति में शत्रु-सेना के हाथियों का कुम्भस्थल विदीर्ण करने की क्षमता उत्पन्न करनेवाली युद्धवीरांगना का कथन है कि हे प्रिय, जहाँ खड्ग का व्यवसाय मिले हम उसी देश में चलें। रण-दुर्भिक्ष में हम क्षीण हो गए हैं। बिना युद्ध के नहीं संभलेंगे। यथा - खग्ग विसाहिउ जहि लहहुं पिय तहिं देसहिँ जाहुँ । रण दुब्भिक्खें भग्गाई विणु जुझें न बलाहुं ॥" __ रुधिर-धारा बहाकर जलते हुए झोंपड़ों को बुझा देने की, अपने कांत की क्षमता पर वीरांगना को अटल विश्वास है। इस संबंध में उसके हृदयोद्गार द्रष्टव्य हैं। यथा - महु कन्तहो गुट्ठ-ट्ठिअहो कर झुम्पडा वलन्ति । अह रिउ-रुहिरें उल्हवइ अह अप्पणे न भन्ति ॥2 - मेरे कंत के गोठ में रहते हुए झोंपड़े कैसे जलते हैं ? या तो वह रिपु के रुधिर से बुझा देता है या अपने रुधिर से। इसमें भ्रान्ति नहीं है। __कबन्ध-युद्ध वीरों के रणोत्साह का चरमोत्कर्ष है। सिर के कटने के उपरान्त भी धड़ का युद्ध करते रहना कबन्ध-युद्ध कहलाता है। हिन्दी साहित्य के आदि-महाकाव्य 'पृथ्वीराजरासो' में कबन्ध-युद्ध का वर्णन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है। वहाँ वर्णित है कि नरसिंह दाहिम का सिर कट गया परन्तु उसके धड़ ने बढ़कर युद्ध किया। आल्हन कुमार के कबन्ध का कार्य भी सराहनीय है। महामाया का स्मरण और जाप करके उस वीर ने अपने हाथ से अपना सिर काटा। फिर पृथ्वीराज के सामने उसे छोड़कर उसका धड़ बायें हाथ में कटार लेकर युद्ध के लिए अग्रसर हुआ और पंग-दल को अपनी मार-काट से विचलित कर डाला। ऐसा प्रतीत होता है कि राहु के अमर कबन्ध की अपने शत्रु (सूर्य और चन्द्र) के प्रति प्रतिक्रिया ने शनैः शनैः साहित्य में नर-कबन्धों द्वारा युद्ध करने की परंपरा डालने की प्रेरणा दी थी। साहित्यिक वर्णनों में अतिशयोक्ति की अभिव्यंजना तो स्पष्ट है, परन्तु रण की विषम मारकाट के बीच में परम उत्साही उद्भट वीरों के सिर कटने पर उनके कबन्ध अपने

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