Book Title: Apbhramsa Bharti 1994 05 06
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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जब प्रिय केवल जाने का आडम्बर करता है तब नायिका हसीन गुस्सा प्रकट करके कहती है
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जउ पवसन्तें सहुँ न गय न मुअ विओएँ तस्सु । जिजड़ संदेसडा दिन्तेहिं सुहय-जणस्सु ॥ 13
अपभ्रंश - भारती 5-6
जाने दो; जाते हुए को मत रोको। देखूँ कितने पग देता है ! हृदय में तो मैं ही तिरछी होकर पड़ी हूँ, प्रिय केवल जाने का आडम्बर कर रहा है।
जाउ म जन्तउ पल्लवह देक्खउँ कइ पय देइ । हिअइ तिरिच्छी हउ जि पर पिउ डम्बरइँ करेइ ॥14
प्रिय का अनागमन जितना दुःखप्रद है उतना ही दुखप्रद है प्रिय का आकर तुरन्त चला जाना । प्रिय के इस व्यवहार के प्रति नायिका की शिकायत निम्नलिखित दोहे में पायी जाती है। एक्कु कइअह वि न आवही अन्नु वहिल्लउ जाहि । मईं मित्तडा प्रमाणिअउ पइँ जेहउ खलु नाहिं ॥15
एक तो कभी भी आता नहीं, दूसरे आता है तो तुरन्त चला जाता है। हे मितऊ ! मैंने प्रमाणित किया कि तुम्हारे जैसा खल नहीं है ।
एक नारी अपने कठोर हृदय की भर्त्सना करते हुए कहती है.
हिअडा पइँ एहु बोल्लिअओ महु अग्गड़ सय-वार । फुट्टिसु पिए पवसन्ति हउँ भण्डय ढक्करि - सार ॥16
• हे हृदय ! तूने मेरे आगे सैकड़ों बार यह कहा था कि प्रिय के प्रवास करते समय मैं फट जाऊँगा । अरे अद्भुत कठोर ! अरे भण्ड !
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मुग्ध स्वभाववाला हृदय जो-जो देखता है, उसी पर अनुरक्त हो जाता है, नायिका उसे चेतावनी देते हुए कहती है कि उसे आगे चलकर फूटनेवाले लोहे के समान घना ताप सहना पड़ेगा। यथा -
जइ रच्चसि जाइट्ठिअए हिअडा मुद्ध-सहाव | लोहें फुट्टणएण जिवँ घणा सहेसइ ताव ॥7
जब नारी - हृदय की धड़कन विरह पीड़ा की गहराई को छूती है तब वह निम्नवर्ती दोहे के रूप में साकार हो जाती है
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मइँ जाणिउँ बुड्डीसु हउँ पेम्म-द्रहि हुहुरु त्ति ।
नवरि अचिन्तिय संपडिय विप्पिय-नाव झडत्ति ॥18
मैंने जाना था कि प्रेम-सरोवर में मैं डूब जाऊँगी । लेकिन विरह की नाव झट से अचिन्तितरूप से आ पड़ी।