Book Title: Apbhramsa Bharti 1994 05 06
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 62
________________ अपभ्रंश-भारती 5-6 51 यह है संदेश-रासक के विरह-वर्णन की भूमिका । इसमें नायिका के भावों को कहकर नहीं प्रत्युत भावविकल चेष्टाओं का सुस्पष्ट और संवेदन-स्पंदित चित्र खींचकर व्यंजित किया गया है। सजीवता, स्वाभाविकता, मार्मिकता और छंदगति चारों की अनुरूपता के कारण इस वर्णन में अपूर्व गत्वर चित्रात्मकता आ गयी है। संदेश-रासक के विरह-वर्णन में अत्युक्तियों का सहारा न लेकर बात को सीधे और मार्मिक ढंग से कहा गया है। इसमें कल्पना को कोरी उड़ान और ऊहात्मकता भी नहीं मिलती। विरहिणी की उक्तियों में भंगिमा उसकी सहज भाव-तीव्रता के कारण है, उसमें प्रेषणीयता व्यापक और प्रगाढ़ संवेदना के कारण है, अलंकार-योजना और नीरस उत्प्रेक्षाओं के कारण नहीं। डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी के शब्दों में - "अपभ्रंश साहित्य की ताजगी, मस्ती और लोक-जीवन की अकृत्रिमता संदेश-रासक के विरह-वर्णन में सुरक्षित है। 27 संदेश-रासक में व्यवस्थित ढंग से विरह की दस दशाओं का वर्णन नहीं किया गया है। इसमें अभिलाषा, चिन्ता, स्मृति, गुणकथन, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, जड़ता आदि अवस्थाओं का वर्णन विभाजन करके क्रमबद्ध ढंग से नहीं किया गया है। प्रयास करने पर भी संदेश-रासक में ये सभी अवस्थाएँ नहीं मिलेंगी। पथिक के उतावलेपन को देखकर विरहिणी ने दीर्घोच्छ्वास लेकर कहा - हे पथिक ! मेरे आशा-सुख में विघ्न डालनेवाले निर्दय प्रिय से कहना कि उसके स्मरण समाधि में मैं मोहस्थित रहती हूँ। वाम कर पर स्थित अपने कपाल को जरा भी इधर-उधर नहीं हटाती हूँ। शैया ही एकमात्र मेरा आसन है । मैं पलंग कभी नहीं छोड़ती। उस कापालिक के विरह ने मुझे कापालिनी बना दिया है। मेरे शरीर का तेज समाप्त हो गया है। अंग सूख गये हैं। बालों के लट इधर-उधर छितरे रहते हैं। मेरे मुख का रंग फीका पड़ गया है। मैं दुर्बलता के कारण चलने में डगमगाती हूँ। मेरी गति विपरीत हो गयी है। कुंकुम और स्वर्ण के समान मेरी शरीर-कांति अब साँवली पड़ गयी है। उस निशाचर के विरह में मैं निशाचरी हो गयी हूँ - समरंत समाहि मोहु विसमट्ठियउ, तहि खणि खुवइ कवालु न वामकरट्ठियउ । सिज्जासणउ न मिल्हउ खण खटुंग लय, कावालिय कावालिणि तुय विरहेण किय ॥86॥ ल्हसिउ अंसु उद्धसिउ अंगु विलुलिय अलय, हुय उब्बिंबिर वयण खलिय विवरीय गय । कुंकुमकणयसरिच्छ कंति कसिणावरिय, हुइय मुंध तुय विरहि णिसायर णिसियरिय ॥87॥ धीरे-धीरे संदेश में विरहव्यथा की अनुभूति गहरी होती जाती है। किन्तु उसकी गति इतनी स्वाभाविक है कि पाठक को यह विचारने का अवसर ही नहीं मिलता कि वह क्रमशः विरहार्णव की अधिक गहराइयों में उतरता जा रहा है। विरहिणी की वेदना के साथ सहृदय पाठक की एकसूत्रता स्थापित हो जाती है।

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