Book Title: Apbhramsa Bharti 1994 05 06
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश-भारती 5-6
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तह मणहर चल्लंतिय चंचल रमणभरि ।
छुडवि-खिसिय रसणावलि किंकिणि रव पसरि ।। इसी प्रकार पूरी पुस्तक में जहाँ-जहाँ 'रासा' छंद आया है वहाँ-वहाँ वह अपनी सहज गति-भंगिमा के कारण एक विशेष प्रभाव उत्पन्न करता है। ऋतुवर्णन के अंतर्गत ग्रीष्म और
वर्णन को छोडकर रासा'छंद का प्रयोग प्रायः उन्हीं स्थलों पर हआ है जहाँ नायिका की चेष्टाओं अथवा विभिन्न मनोदशाओं का चित्रण है। संदेश-रासक में प्रारंभिक और अंतिम अंशों को छोड़कर मुख्य ग्रंथ में प्रायः प्रति चार-पाँच छंदों का अंतर देकर 'रासा' आया है। पुस्तक में प्रयुक्त 'रासा' छंद का क्रम इस प्रकार है - 26-30, 41-58, 64-68, 91-92, 96-99, 101-103, 104, 109-110, 113, 117-118, 121-125, 130-136, 139-147, 151, 154-155, 184-190, 192-198 । ___संदेश-रासक तीन प्रक्रमों में विभाजित है। अब तक किसी अन्य ग्रंथ का विभाजन 'प्रक्रमों' में नहीं प्राप्त हुआ है। यह विभाजन कथावस्तु की तीन अवस्थाओं के आधार पर किया गया है। ईश्वर-वंदना, कवि-परिचय, ग्रंथ-परिचय तथा पाठकों से निवेदन प्रथम प्रक्रम में समाप्त हो जाता है। दूसरे प्रक्रम में विरहिणी नायिका का वर्णन और पथिक-दर्शन के उपरांत उसकी आकुलता तथा प्रिय को संदेश भेजने की उत्कंठा का चित्रण है। विरहिणी पथिक से संदेश कहती ही जाती है। जब कभी पथिक ऊबकर जाने की आज्ञा माँगता है तो वह 'चार गाहा और, तीन अडिल्ल और, केवल दो दोहे और' आदि कहकर उसे रोके रहती है। अंत में उसकी विरहदशा सुनते-सुनते पथिक का मन भी पसीज जाता है और वह पूछता है कि हे विरहिणी ! तुम्हारी यह दशा कब से है? फिर क्या पूछना ! नायिका को विरह का परा पोथा खोलने का अवसर मिल जाता है। यहाँ से तृतीय प्रक्रम प्रारंभ होता है। विरहिणी एक-एक करके छहों ऋतुओं में अपनी विरह-दशा का वर्णन करती है। इस प्रकार छहों ऋतुओं का और प्रत्येक ऋतु में अनुभूत विरह-दुःख का भरपूर वर्णन करके वह पथिक को जाने की अनुमति देती है। वहाँ से वह अपने घर की ओर मुड़ी ही थी कि उसका प्रियतम आता हुआ दिखायी पड़ता है। दोनों की भेंट होती है और इसी हर्ष-प्रसंग में रासककार अद्दहमाण भी पाठकों को शुभाशी: देते हुए विदा लेता है। श्रृंगार की परिभाषा और स्वरूप
आचार्य भरतमुनि ने श्रृंगार की परिभाषा देते हुए कहा है कि प्रायः सुख प्रदान करनेवाले इष्ट पदार्थों से युक्त ऋतु, मालादि से सेवित, स्त्री और पुरुष से युक्त 'शृंगार' कहा जाता है -
सुख प्रायेष्ट सम्पन्न ऋतु माल्यादि सेवकः ।
पुरुषप्रमदायुक्त श्रृंगार इति संज्ञितः ॥' धनंजय ने भरतमुनि का अनुकरण करते हुए कहा कि परस्पर अनुरक्त युवा नायक-नायिका के हृदय में रम्य-देश, काल, कला, वेश, भोग आदि के सेवन से तथा उनके अंगों की मधुर चेष्टाओं के द्वारा परिवर्धित रति ही आनंदात्मक शृंगार रस है -