Book Title: Apbhramsa Bharti 1994 05 06
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश-भारती 5-6
जनवरी-जुलाई-1994
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संदेश-रासक में श्रृंगार-व्यंजना
- डॉ. इन्द्र बहादुर सिंह
प्राणिमात्र के जीवन को 'राग' आदि से अंत तक चंदोवे की भाँति आच्छादित किये रहता है। 'रागात्मिका वृत्ति' का जन्म भी राग द्वारा ही होता है। रागात्मिका वृत्ति द्वारा प्रेरित मानव कर्मशील बनकर विभिन्न कार्यों में रत रहकर जीवन में सफलता के चिह्न देखने की प्रबल इच्छा करता है। नियति के नियमन का कार्य भी इसी वृत्ति द्वारा सम्पादित होता है। इसीलिए स्त्री और पुरुष विपरीत लिंग के प्रति अर्थात् एक दूसरे के प्रति आसक्ति का अनुभव करते हैं। स्त्री और पुरुष के जीवन में आकर्षण की प्रक्रिया ही मानव/प्राणी को समरसता के शिखर पर प्रतिष्ठापित कर देती है। उस समय मनुष्य का जीवन उस दिव्य भावभूमि पर जाकर टिक जाता है जिसके सम्मुख स्वर्गिक आनंद भी फीका पड़ जाता है। अतः दो विरोधी लिंगों का आकर्षण ही प्राणिमात्र के हृदय में अनिर्वचनीय आनंद को जन्म देता है तथा उसमें भावी सृष्टि के निर्माण की अपेक्षा भी रहती है।
सृष्टि के आदिकाल से ही स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के पूरक रहे हैं। संभवतया अभाव की इसी प्रवृत्ति ने दोनों के हृदय में व्यथा को जन्म दिया। यही कारण है कि जब दोनों एक-दूसरे के साथ मिलन-सुख की प्राप्ति के लिए अधीर हो उठते हैं तो दोनों की विह्वलता विरह की संज्ञा प्राप्त करती है तथा मिलन होने पर वही संयोग की परिणति को प्राप्त होती है। अतः स्पष्ट है कि स्त्री-पुरुष के मिलन की यही प्रवृत्ति श्रृंगार के परिवेश में आती है।