Book Title: Apbhramsa Bharti 1994 05 06
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 58
________________ अपभ्रंश-भारती 5-6 47 है तो उसके कपोल प्रदेश ऐसे लगते हैं मानो चन्द्र में सूर्य प्रविष्ट हो गया है (यहाँ चन्द्र उसका मुख है और हँसी से उत्पन्न शोभा सूर्य है), किसी का मदनपट्ट मृगनाभि से चर्चित है, किसी ने अपना भाल (या स्तन भार ?) तिरछे तिलक से अलंकृत कर रखा है - अवरकहव णिवडुब्भर घणतुरंग स्थणिहिँ, भरिण मञ्झु णहु तुइ ता विभिउ मणिहिं । कावि केण सम हसइ नियइमइकोइणिहि, छित्ततुच्छताभिच्छ तिरच्छिय लोइणिहि ॥47॥ अवर कावि सुवियक्खिण विहसंतिय विमलि, णं ससि सूर णिवेसिय रेहइ गंडयलि । मयणवट्टटु मिअणाहिण कस्सव पंकियउ, अन्नह भालु (भारु) तुरक्कि तिलक आलंकियउ ॥48॥ किसी का मज़बूत और स्थूल मुक्ताओं वाला हार मार्ग न पाने के कारण स्तनपट्ट के शिखर पर लोटता है, किसी का गंभीर नाभिविवर कुंडलाकार है और त्रिवली तरंगों से मंडलित है। कोई रमणी गुरुविकट रमण भार (नितंब) को अत्यंत कष्ट से धारण कर रही है, जिससे उसकी गति में विस्मयकारक लीलायित गति आ गयी है। वह शीघ्रता से चल नहीं पाती। मधुर अधर बोलती हुई किसी कामिनी के हीरपंक्ति सदृश दाँत पान खाने के कारण आरक्त दिखायी पड़ते हैं - हार कसवि थूलावलि णिठुर रयणभरि, लुलइ मग्गु अलहत्तउ थणवट्टह सिहरि । गुहिर णाहिविवरंतरु कस्सवि कुंडलिउ, तिवल तरंग पसंगिह रेहइ मंडलिउ ॥49॥ रमणभारु गुरुवियडउ का कट्ठहि धरइ, जइ मल्हिरउ चमक्कउ तुरियउणहु सरह । जंपंती महुरक्खर कस्सव कामिणिहिँ, हीरपंतिसारिच्छ डसण झसुरारुणिहिँ ॥50॥ इस प्रकार हम देखते हैं कि अदहमाण ने कहीं भी केवल चमत्कारी उपमानों का सहारा लेकर रूप-वर्णन के नाम पर खिलवाड़ नहीं किया है। चमत्कारप्रियता का लोभ संवरण कर इन्होंने उपयुक्त उपमानों के व्यवहार से शरीर-सौन्दर्य का उत्कृष्ट वर्णन प्रस्तुत किया है। "संदेश-रासक के कवि ने स्वाभाविकता की उपेक्षा कहीं नहीं होने दी है। परंपरा विहित उपमानों को ग्रहण करने पर भी उन्होंने अपनी मौलिकता और सूक्ष्म निरीक्षण का पूरा उपयोग किया है। 123 संदेश-रासक में ऐसे कई मार्मिक उपमान हैं जो शरीर की बाह्य दशा के अंकन की अपेक्षा अंतर्दशा का चित्रण अत्यन्त मार्मिक ढंग से करते हैं। ऐसे स्थलों पर कवि की संवेदनशीलता और सशक्त कवित्व क्षमता को देखा जा सकता है -

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