Book Title: Apbhramsa Bharti 1994 05 06
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 52
________________ अपभ्रंश-भारती 5-6 41 का गुरु, देवता, पुत्र विषयक रति के संबंध में व्यभिचारी का कथन इसी तथ्य को धोतित करता है। अतएव श्रृंगार के अंतर्गत वात्सल्य एवं शुद्ध मित्रता के भाव को कदापि ग्रहण नहीं किया जा सकता। ___ महाराज भोज का दृष्टिकोण बहुत ही व्यापक है। उन्होंने मानव-हृदय में स्थित अहंभाव को ही श्रृंगार का दूसरा रूप स्वीकार किया है। मानव-हृदय में अहं का बीज प्रारम्भ से ही विद्यमान रहता है। इसी से मनुष्य के हृदय में रत्यादि भावों की उत्पत्ति होती है। भोज के अनुसार यह आत्मा का अंतिम सत्य है। यही रस है जिसमें आत्मा को चरम आनंद की उपलब्धि होती है। वह आत्मा का अपने प्रति प्रेम है। इसे आत्मानुरक्ति अथवा आत्मकाम भी कह सकते हैं।' इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि भोज ने दाम्पत्य-श्रृंगार के साथ-साथ समस्त बाह्य संसार को भंगार की परिधि में समेट लिया है। अतएव यहाँ श्रृंगार का रूप व्यष्टिगत न रहकर समष्टिगत हो जाता है। जहाँ तक श्रृंगार की सैद्धान्तिक परिभाषा का प्रश्न है वहाँ अपभ्रंश के अधिकांश कवियों ने संस्कृत के प्रतिनिधि तथा मान्य कवियों का ही अनुगमन किया है। . श्रृंगार की उपर्युक्त समस्त परिभाषाओं के विवेचन-विश्लेषण के बाद संक्षिप्त रूप में श्रृंगार के विषय में यही बात कही जा सकती है कि स्त्री-पुरुष दोनों के हृदय में स्थित रति स्थायीभाव जब काम से समन्वित होकर दोनों में परस्पर आकर्षण का भाव उत्पन्न कर देता है तो वही भावना श्रृंगार की संज्ञा प्राप्त करती है। श्रृंगार रस के भेद आनंदवर्धन ने रसों की व्युत्पत्ति करते हुए कहा है कि प्रधानभूत श्रृंगार रस के प्रारम्भ में दो भेद होते हैं, संभोग (-शृंगार) और विप्रलंभ (-शृंगार)। उनमें भी संभोग के परस्पर प्रेमदर्शन (दर्शन संभाषणादि का भी उपलक्षण है) सुरति (और उद्यान) विहारादि भेद हैं। (इसी प्रकार) विप्रलंभ के भी अभिलाषा, ईर्ष्या, विरह, प्रवास और विप्रलंभादि (शापादि निमित्तक वियोगादि) भेद हैं। उनमें से प्रत्येक (भेद) के विभाव, अनुभाव, व्यभिचारीभाव के (भेद से) भेद हैं और उन (विभावादि) के भी देश, काल, आश्रय, अवस्था (आदि से) भेद हैं । इस प्रकार स्वगत भेदों के कारण उस एक (शृंगार) की परिभाषा करना (ही) असंभव है, फिर उनके अंगों के भेदोपभेद की कल्पना की तो बात ही क्या है ! वे अंगों (अलंकारादि) के प्रभेद प्रत्येक अंगी (रसादि) के प्रभेदों के साथ संबंध कल्पना करने पर अनंत हो जाते हैं। आनंदवर्धन के अनुसार यह बात स्पष्ट हो जाती है कि एक श्रृंगार रस के ही अनेक भेदप्रभेद किये जा सकते हैं, लेकिन मुख्य रूप से विद्वानों ने उसके दो भेद ही स्वीकार किये हैं - संयोग और वियोग अथवा संभोग एवं विप्रलंभ। आनंद प्रकाश दीक्षित के अनुसार - "मुख्यतः नायक-नायिका के संबंधों की कल्पना करके उनका संयोग और वियोग अथवा संभोग तथा विप्रलंभ नामक भेदों में विभाजन किया गया है। साहित्यिक क्षेत्र में इसी वर्णन के भेदोपभेदों का वर्णन किया जाता है। इन भेदों के अतिरिक्त चतुर्वर्ग के आधार पर भी इसका वर्गीकरण किया गया है, किन्तु उसका प्रचलन नहीं दीख पड़ता।"11

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