Book Title: Apbhramsa Bharti 1994 05 06
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 40
________________ अपभ्रंश-भारती 5-6 29 जा सकता है कि ये फागु-काव्य अपने प्रारंभ में नृत्य करते हुए गाये जाते होंगे, जैसा कि अपभ्रंश के जैन-मुनियों द्वारा ही प्रणीत 'रास' नामधारी काव्यों के संबंध में भी मिलता है। __इनके नाचने-गाने तथा खेलने-रमने के अनेक संदर्भ इन कृतियों में ही उपलब्ध होते हैं, यथा - 1. 'खेला नाचउँ चैत्र मासि रंगिहि गावेवउंग 2. 'हरिहलहरसउं नेमिपहु खेलइ मास वसंतो 3. 'धनु धनु ते गुणवंत बसंत विलासु जि गाइ 4. 'गाइसु नेमि कृपागुरु सागर गुणह अपारु" 5. 'फागु वसंति जि खेलइ, खेलइ सुगुण निधान 6. 'किवि नाचइ मनरंगि, केवि खेलइ तिहि फागो" 7. 'फागु खेलइ मनरंगिहि हंसगमणि मृगनयणि" 'फागु खेलने' की परम्परा आज भी ब्रज, राजस्थान तथा गुजरात के लोक-जीवन में दर्शनीय है। बसन्त ऋतु का प्रधान उत्सव फाल्गुन महीने में होता है। उस समय नर-नारी मिलकर परस्पर में एक-दूसरे पर अबीर-गुलाल आदि डालते हैं और जल की पिचकारियों से क्रीड़ा करते हैं, उसे फाग खेलना कहते हैं। बसंत-ऋतु के उल्लास का जिसमें कुछ वर्णन हो या उन दिनों में जो रचना गाई जाती हो, उन रचनाओं की संज्ञा फागु दी गई है। श्री के. एम. मुंशी के मतानुसार बसंतोत्सव के समय गाये जानेवाले रास को ही फागु संज्ञा प्रदान की गई। इनमें बसंत ऋतु के सौन्दर्य, प्रणयी पात्रों के उल्लास एवं नृत्य का वर्णन रहता है जिनसे गुजरात के मुक्त तथा आनंदमय जीवन की सहज अभिव्यक्ति होती है। उनके अनुसार 14वीं सदी की 'स्थूलिभद्र फागु' इस परंपरा की सर्वप्रथम कृति है।12 ___ अन्य अनेक जैनेतर कवियों ने भी 'फागु' काव्यों की रचना की। उनमें भी बसंत ऋतु की सुन्दर छटा तथा लोक-जीवन की मस्ती के साथ शृंगार रस का मनोहारी निरूपण हुआ है, यथा - अज्ञात कविकृत 'नारायण फागु'; चतुर्भुज-कृत 'भ्रमरगीता'; अज्ञात कविकृत 'हरिविलास फागु'; 'विरह देसावरी फागु' तथा 'चुपई फागु' आदि। इस प्रकार स्पष्ट है कि उन दिनों लोकजीवन और लोक-साहित्य में फागु-रचना-शैली का भरपूर प्रचार था जिसमें नृत्य की प्रधानता रहती और तदुपरि गीत की संगति से इसका रूप विकसित हुआ होगा। इन्हीं गीतों के माध्यम से जैन मुनि अपने पूज्य तीर्थंकरों एवं आचार्यों के चरित्र को श्रृंगार के परिवेश में काव्यबद्ध करते होंगे और नृत्य के साथ बसंत ऋतु में उसकी अभिव्यक्ति श्रावकों के साथ उल्लासपूर्ण वातावरण में होती होगी। फिर, धीरे-धीरे कालांतर में कथा-तत्त्व के समावेश से इनका काव्यरूप सुपाठ्य एवं गेय होता गया होगा। लोक-जीवन में उद्भूत इन फागु-काव्यों में जहाँ बसंत के मादक और उद्दीपनकारी परिवेश में श्रृंगार रस के संयोग एवं वियोग पक्ष का भरपूर चित्रण होता है वहाँ जैन मुनियों द्वारा प्रणीत

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