Book Title: Apbhramsa Bharti 1994 05 06
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश - भारती 5-6
और आचार्यों ने लोक-जीवन तथा लोक-साहित्य का जैसा मंथन और चिन्तन किया वैसा ही नित नूतन साहित्य-सृजन भी । यद्यपि इनका मूल प्रयोजन जैनधर्म का प्रचार-प्रसार ही था, पर उसकी अभिव्यक्ति का साहित्यिक माध्यम बड़ा मनोहारी था। लोक-जीवन की बारीकियों तथा संस्कृति के अवगुंठनों को परखने, पचाने और प्रयोग करने की ऐसी भव्य दृष्टि एवम् कला इस काल के बहुत समय बाद परवर्ती हिन्दी के मध्यकालीन सूफी प्रेमाख्यानों में ही देखने को मिलती है।
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सचमुच साहित्यकार की अपनी अलग दृष्टि होती है। अन्य सामाजिक जिस वस्तु को नगण्य और मूल्यहीन जानकर फेंक देते हैं; सच्चा और समर्पित कलाकार उसी में से कला के भव्य आकार को जन्म देता है, सुन्दर को तराशता है और साहित्यकार जीवन की उदात्त एवं नव्य रूपसृष्टि करता है। अपभ्रंश के इन जैन मुनियों और आचार्यों के अंतस् में छिपे साहित्य-साधक और कला - स्रष्टा का यह रूप बड़ा ही अनूठा, अन्यतम और बेजोड़ है । धर्म-साधना में निरत रहने पर भी इसी से उनकी साहित्य-संरचना अपने युग की अक्षुण्ण निधि तो है ही, परवर्ती हिन्दी - साहित्य के लिए भी उपजीव्य बन गई है।
जैन मुनियों द्वारा प्रणीत यह अपभ्रंश - साहित्य अधिकांशतः प्रबंधपरक ही है और कथाकाव्यों की परंपरा का अनुगामी रहा है । परन्तु कथा-शिल्प इनका अपना तथा मौलिक है। इस प्रकार इनका कृतित्त्व कविता और कला, भाव और व्यंजना, कथा-संगठन और कल्पना एवं भाषा और बन्ध के मणिकांचन संयोग से अद्वितीय बन गया है। जैनधर्म के प्रचार एवं जन-साधारण के चारित्रिक गठन को बल देने की दृष्टि से पूज्य पुरुषों, तीर्थंकरों तथा आचार्यों के जीवनवृत्त को काव्य में गूँथना आवश्यक था और यह प्रबन्ध-रचना में ही संभव हो सकता था । अस्तु, अपनी अभिव्यक्ति के लिए इन्होंने किसी पांडित्यपूर्ण पथ का अनुधावन न कर, लोकवाणी के विविध रूपों को ही सहर्ष आत्मसात् कर बहते नीर की निष्कलुषता का मूल्यांकन किया। इस प्रकार अपभ्रंश की ये प्रबंधपरक रचनाएँ मूलतः चरितकाव्य ही हैं । इनके लिए रचयिता जैन मुनियों ने विविध नामों का प्रयोग किया है, यथा रास, विलास, लता, चर्चरी, संधि तथा फाग आदि । विवेच्य की दृष्टि से जहाँ इनमें किंचित् साम्य दीख पड़ता है वहाँ काव्य-बन्ध के विचार से ये परस्पर भिन्न हैं। लगता है जैसे शैली-वैविध्य के कारण ही इन काव्य रूपों का सृजन हुआ है । अस्तु, कहा जा सकता है कि अपभ्रंश के ये फागु-काव्य भी चरित-निरूपण की एक विशिष्ट शैली के प्रतिपादक हैं। 'जंबुय गुण अनुरागहिं, फागिहिं कहिय चरित्तु' ।'
'फागु' शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत 'फल्गु' तथा प्राकृत 'फग्गु' (> फागु) से स्पष्ट है । भारतीय लोक-जीवन में 'फागु' शब्द 'फागुन' या 'फाल्गुन' महीने से जुड़ा है और इसी महीने में बसंत ऋतु की मादकता तथा मस्ती मानव एवं मानवेतर प्रकृति में अवलोकनीय होती है। बाहर और भीतर का उल्लास सहज सौन्दर्य की सृष्टि में सक्षम होता है। तभी तो जड़ प्रकृति रंगबिरंगे - बहुरंगे परिधान में मुस्कुराती - लुभाती है और मनुष्य निस्पृह भाव से नाचता-गाता है। अपभ्रंश की यह काव्य-विधा अपने नाम के अनुरूप इस वैशिष्ट्य से परिपूर्ण है । अतः कहा