Book Title: Apbhramsa Bharti 1994 05 06
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश-भारती 5-6
अस्तु, कथ्य और विवेच्य की दृष्टि से ही नहीं, शिल्प और रचना-बन्ध के विचार से भी फागु-काव्य के विकास को अंकित किया जा सकता है। काव्य-रूप की परम्परा सदा एकसमान तो रहती नहीं, बदलते परिवेश और अभिरुचि के साथ उसके स्वरूप में भी परिवर्तन अवश्य होता है। जिनपद्मसूरि-कृत 'स्थूलिभद्र फागु', कृष्णर्षीय जयसिंहसूरि-कृत 'प्रथम नेमिनाथ फागु' भासों में विभक्त मिलते हैं। दूहा के उपरान्त रोला छन्द के अनेक चरण प्रयुक्त होने पर 'भास' बनता है। यह परंपरा परवर्ती 'रावणि पार्श्वनाथ फागु','पुरुषोत्तम पाँच पांडव फागु' तथा 'भरतेश्वर चक्रवर्ती फागु' आदि में 15वीं सदी तक यथावत् उपलब्ध होती है। जिस प्रकार गरबा के अन्तर्गत बीच-बीच में साखी का प्रयोग होने से एक प्रकार का विराम उपस्थित हो जाता है और काव्य की सरसता बढ़ जाती है। उसी प्रकार प्रत्येक भास के प्रारम्भ में एक दहा रख देने से फागु का रचनाबन्ध सप्राण हो उठता है'
किन्तु, 16वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में इनमें बीच-बीच में संस्कृत श्लोकों का भी प्रयोग किया जाने लगा, यथा - धनदेवगणि-कृत 'सुरंगाभिध नेमि फागु', रत्नमंडलगणि-कृत 'नारी निरास फागु' आदि। साथ ही, एकाधिक मात्रिक छन्दों का प्रयोग भी दर्शनीय है, यथा - दूहा, त्रोटक, चालि, फागु, आंदोला, रासउ, काव्य, फागुनी ढाल आदि। कथानक का विभाजन भी 'ढालों' में मिलने लगता है, यथा - कल्याण-कत 'वासपुण्य मनोरम फाग'। साथ ही, अनेक रागरागिनियों का संकेत तथा लोक-गीतों की शैली का प्रभाव 'अरे', 'हे' आदि संगीतबद्ध बोलों का प्रयोग एक नये ही रचनाबन्ध की सूचना देता है। लगता है जैसे कृष्णभक्त वैष्णव कवियों का प्रभाव इस काल में फागु की रचना-शैली पर पूर्णतः उभर आया था।
भाषा के विकास की दृष्टि से भी इस समय तक गुजराती, राजस्थानी, ब्रज आदि प्रांतीय भाषाएँ पूर्णतः विकसित होकर साहित्य-संरचना में समृद्ध होने लगी थीं। अस्तु, अपभ्रंश में फागुकाव्यों का प्रणयन प्रायः अवरुद्ध-सा होने लगा था, पर इस परम्परा की दो दिशाएँ स्पष्टतः हो जाती हैं - एक का प्रसार जूनी गुजराती में देखने को मिलता है तो दूसरी का ब्रजभाषा के कृष्णभक्त कवियों की रचनाओं में।
रचना-शिल्प की दृष्टि से अपभ्रंश के फागु-काव्यों के प्रारम्भ में अन्य प्रबंध-रचनाओं की भाँति जहाँ सरस्वती एवं पूर्व तीर्थंकरों आदि की वन्दना की गई है वहाँ प्रतिपाद्य का संकेत भी कर दिया गया है, यथा -
पणमिय पासजिणंदपय अनु सरसइ समरेवी, थूलिभद्दमुणिवइ भणिसु, फागु बंधि गुण केवी ॥ 1124
पणमिवि जिण चउवीस पई, सुमरवि सरसइ चित्ति, नेमि जीणेसर केवि गुण, गाएसउ बहु भत्ति ॥ 1125