Book Title: Apbhramsa Bharti 1994 05 06
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 42
________________ अपभ्रंश-भारती 5-6 31 अहे पहिरणि पीत पटोलडी, ओढणी नवरंग चीर, विरहु तुम्हारी नाहला नयण न सूकि नीर ॥4॥ भरत भरावू कंचुउ, गलि एकाउलि हार, सहिज सकोमल चालती, पाये नेउर झणकार ॥5॥ जसी तरुवर पाँखड़ी, आँखड़ी काजलि रेह, बालपणाचें नेहडु, वालम कांई उवेखि ॥6॥" बंसत-श्री की पृष्ठभूमि में श्रृंगार का यह आकलन जैन और जैनेतर सभी फागु-काव्यों में समानतः अवलोकनीय है। मात्र 14वीं सदी का जिनपद्मसूरि-कृत 'स्थूलिभद्र फागु' इस दृष्टि से अपवाद है। कारण, यहाँ बसन्त के स्थान पर वर्षा ऋतु का वर्णन किया गया है, यथा - झिरिमिरि झिरिमिरि झिरिमिरि ए मेहा बरसंति, खलहल खलहल खलहल ए बादला बहंति, झबझब झबझब झबझब ए बीजुलिय झबकइ, थरहर थरहर थरहर ए विरहिणिमणु कंपइ ॥6॥18 पर, अंत समानतः नायक-नायिका के जैनधर्म में दीक्षित होने से किया गया है। इस लौकिक अनासक्ति तथा निर्वेद के कारण ही इनमें पारलौकिक सिद्धि तथा फल का अंत में संकेत किया गया है, यथा - देव समंगलपुत्त फागु गायउ भो भविया, जिम तुम्हि पायउ रिद्धि वृद्धि मंगल संकलिया ॥20॥१ फागु बसंति जि खेलइ, खेलइ सुगुण विधान, विजयवंत ते छाजइ, राजइ तिलक समान ॥ 5920 इस प्रकार इन फागु-काव्यों में विलास के ऊपर संयम की, काम के ऊपर वैराग्य की विजय सिद्ध करने के लिए विलासवती वेश्याओं और तपोधारी मुनियों की जीवन-गाथा प्रदर्शित की जाती है। ....." चमत्कार के ये ही क्षण फागुओं के प्राण हैं। इसी समय कथावस्तु में एक नया मोड़ उपस्थित होता है जहाँ श्रृंगार निर्वेद की ओर सरकता दिखाई पड़ता है। इस स्थल से आगे वासना का उद्दाम वेग तप की मरुभूमि में विलीन हो जाता है और अध्यात्म के गंगोत्री पर्वत से आविर्भूत पवित्रता की प्रतिमा पतितपावनी भगीरथी अधम वारि-वनिताओं के कालुष्य को सद्यः प्रक्षालित करती हुई शांति-सागर की ओर प्रवाहित होने लगती हैं। फिर भी, यह कहने में कोई संकोच नहीं कि जैन फागु-काव्य धर्म-भाव-प्रधान होने पर भी कवित्व से भरपूर हैं। जहाँ जैनेतर फागु-काव्य लोक-जीवन की मस्ती से गहराये होने के कारण काव्य-रस से भी भरे-पूरे होते हैं वहाँ जैनों के फागु-काव्यों का कवित्व उपास्य बुद्धि से चालित होता है। इसी प्रकार परवर्ती हिन्दी के कृष्णभक्त कवियों द्वारा रचे गये फागु-संबंधी पद भी आध्यात्मिक होकर कवित्व में

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