Book Title: Anusandhan 2006 02 SrNo 35
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 12
________________ महोपाध्याय समयसुन्दर प्रणीता नवनवत्यधिकनवशताक्षरा महादण्डकाख्या विज्ञप्ति-पत्री म. विनयसागर सरस्वतीपुत्र प्रौढ़ विद्वान महोपाध्याय समयसुन्दरजी का नाम साहित्याकाश में भास्कर के समान प्रकाशमान रहा है । इनका नाम ही स्वतः परिचय है अतः परिचय लिखना पिष्टपेषण करना मात्र होगा। महोपाध्यायजी खरतरगच्छाधिपति श्रीजिनचन्द्रसूरि के प्रथम शिष्य श्री सकलचन्द्रगणि के शिष्य है । इनका साहित्य-सर्जना-काल विक्रम संवत् १६४० से लेकर १७०३ तक का है । प्रस्तुत विज्ञप्ति-पत्री अपने आप में मौलिक ही नहीं अपितु अपूर्व रचना है। विज्ञप्तिपत्रों कि कोटि में यह रचना आती है। यह चित्रमय नहीं है किन्तु प्राप्त विज्ञप्तिपत्रों से इसकी मौलिकता सबसे पृथक् है । विज्ञप्तिपत्र प्रायः चम्पूकाव्य के रूप में अथवा खण्ड/लघुकाव्य के रूप में प्राप्त होते हैं । जिसमें प्रेषक जिनेश्वरों का, नगरसौन्दर्य का, पूज्य गुरुराज का सालङ्कारिक . वर्णन करने के पश्चात् प्रेषक अपनी मण्डली के साथ अपने और समाज द्वारा विहित कार्य-कलापों का सुललित शब्दों में वर्णन करता है । दण्डक छन्द में रचित छोटी-मोटी अनेक रचनाएं प्राप्त होती हैं किन्तु दण्डक छन्द के अन्तिम भेद ३३३ नगणादि गणों का समावेश करते हुए यह रचना ९९९ अक्षर योजना की है इसीलिए इसे महादण्डक शब्द से अभिहित किया गया है । इस प्रकार की कृति मेरे देखने में अभी तक नहीं आई है । हो सकता है कि किसी कवि ने इस प्रकार की रचना की हो और वह किसी भण्डार में सुरक्षित हो ! २४ अक्षर के पश्चात् ९ गणों के सम्मिलित अर्थात् २७ वर्ण होते ही वह दण्डक छन्द कहलाता है और क्रमशः एक-एक मगणादि की वृद्धि करते हुए ३३३ गणों तक यह दण्डक ही कहलाता है । दण्डक छन्द के १. इनके सम्बन्ध में विशेष जानकारी हेतु महोपाध्याय समयसुन्दर (ग्रन्थ) देखें । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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