Book Title: Anusandhan 2006 02 SrNo 35
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 53
________________ 46 दोहा ॥ चउदम पूरव नित नमो दुविधपूतता धार । सेवो प्राणी भावसुं जूं पामो भवपार || ढाल ॥ तुझ दरशन के कामी रे ॥ चाल ॥ जिन प्रवचन बलिहारी रे परमानंद पाया ||जि० ॥ टेका। लोकालोक स्वरूप प्रकाशक भविकज - बोध कराया । अनुसन्धान ३५ नभ तल तरणि किरण रुचि भू-कज ए दृष्टांत धराया रे || ० ||१|| बिंदुसार वा लोकप्रवादें नख पण वसतू माया । रुचकाष्टक निरमलता कारण दुरधर दुरित गमाया रे ||१०||२|| कोटि द्वादश पद लक्ष पंचाशत पद अरथागम धाया । सेवित निध्युदय चारित्रनंदी लहै रिधि वृधि सुखदाया रे ||१०||३|| ह्रीं० बिंदुसार पूर्वे० ॥ इति लोकप्रवाद वा बिंदुसार पूर्वाचनम् ||२||१२||१४||२६|| दोहा ॥ पूरवगत पूजा करी पण अधिकार समेत । दृष्टिवाद अंग पूजिये निज अनुभव गुण लेत ॥१॥ काव्यं ॥ सद्ध्यानाधारभूतं दुरितरजसमीरं समृद्धिप्रदोयमेतत्पूर्वानुभावैः सुरमणिसदृशो भव्यसत्त्वाः प्रयान्ति । नृनाकानुत्तरादेरचलसुखनिधि प्रेत्य गच्छन्ति सिद्धि । सन्तत्यैश्वर्यपद्मप्रवचननिधिभिः संयमः सौख्यमेनि ॥ १ ॥ विमल कोटक चन्द्रकुलाम्बरे खरतराधिपराजमुनीश्वरः । गुरुपदाम्बुजभृङ्गसुवाचकः समभवद्विजयोत्तररामकः ॥२॥ प्रवरवाचकवंशपरम्पराः पदमहर्ष सुखार्भककंचन । महिमचित्रकनिद्धिसुवाचकाः समभवन् जिनशासनपारगाः ॥३॥ गुरुपदाम्बुजहंससुसंयमः परमसिद्धिसुखाय विनिर्ममे । शेरखगाष्टमं हीनमिजन्मनि विपुलपूर्वगताधिकृतस्तुतिं ॥ ४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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