Book Title: Anusandhan 2006 02 SrNo 35
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 58
________________ फेब्रुआरी- 2006 जिनवाणी रे आरिज अनारज मृगपशु, खग - दुपद रे - चउपद प्रीछइ हरखशुं; ए चोथे रे पंचमि सुरनर ने तिरी, प्रभुदेसण रे निसुणी मित्रभावे धरी. जे धरीय भाव नमंति वादी, छठ्ठो अतिशय ए सही; सात वाद करे जे के ते, जाय मान रहित थइ. ईतिनो भय आठमे नहि, जोयण तिहां पचवीश अ; मारिनो भय नवमे टलि; संचरइ तिहां जगदीश ए..... ॥३॥ वली दसमे रे भय सचक्रनो नहि कदा, परचकर रे एकदशमे नवि सदा; अतिवुठी रे होय नहि तिहां बारमे, वली जाणो रे अणावुट्ठी नहि तेरमे. तेरमो अतिशय एह बोल्यो, नहि दुर्भिक्ष चौदमे; शोणितवृष्टि प्रमुखने रोगा, वेग उपशम पन्नरमे. ए आठमाथी पनरमा लगी, सवि जोयण पणवीस अ; देवकृत हवे पनर सुणिज्यो, कह्या जिम जगदीश ओ..... ||४|| ढाल बीजी-उलालारी केश- मांस-नख-रोम सवि नवि वाधइ एक, धर्मचक्र आकाश रहइ बीजो सविवेक; त्रण छत्र गयणंगणे ए त्रीजो सोहे, चामर सेत सोहामणो से चोथो मन मोहे..... ॥१॥ स्फटिक सिंहासन पादपीठ सम पंचम सार, छठे इन्द्रध्वज भलो ए ते अतिही उदार; सहस पताका परिवर्यो ए सुंदर सजगीस, दिव्यप्रभाव सदैव जिहां विचरे जगदीश... ॥२॥ तरु अशोकवर सातमे ओ, ओ उत्तम नाम, छत्र पताका धजा सहित घंटा अभिराम; Jain Education International 51 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98