Book Title: Anusandhan 2006 02 SrNo 35
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
View full book text
________________
विहंगावलोकन
उपा. भुवनचन्द्र
अनु० ३४मा म. विनयसागरजी द्वारा सम्पादित संस्कृत स्तुतिओ १५ पृष्ठमां पथराई छे. चार पृष्ठ जेटली भूमिकामां सम्पादके जाणवा जोग विगतो एकत्र करीने मूकी छे - सम्पादकश्रीना आ परिश्रमनुं अनुकरण प्राचीन कृतिओना सम्पादन - संशोधनक्षेत्रे सर्वेए करवा जेवुं छे. विषयनी समानता छतां छन्द - अलंकार - कल्पनाना वैविध्यथी रसमयता अबाधित रहे छे. वर्णानुप्रास - अन्त्यानुप्रासनुं निर्वहण अन्त सुधी अति सहजताथी कविवर करी शक्या छे- ए तेमना प्रौढ पाण्डित्यनुं सूचक छे.
स्तुति १, श्लोक २ मां 'यै:' मां विसर्ग न जोइए. 'यै' (लक्ष्मी माटे) चतुर्थ्यन्त पद छे. स्तु. १३, श्लो. ४मां 'करन्ती' जेवो प्रयोग 'निरंकुशा: कवयः' ए उक्तिने सार्थक करे छे. स्तु. २५, श्लो. २ मां 'सुरतं' छे त्यां गण अनुसार प्रथम दीर्घ वर्ण होवो जरूरी छे. माटे पाठवाचनमां भूल होवानी शक्यता छे. त्रीजा श्लोकमां ० भृतमध्य० ने स्थाने ० भृतमध्यं होय तो छन्दनी दृष्टिए पाठ शुद्ध बने. स्तु. २४, श्लो. ४मां सकर्णावलीनुतलक्षणः एवो समास वांचवाथी अर्थ बेसे छे.
कवि मोटा भागे ओछा प्रचलित छन्दो वापर्या छे. प्रशस्तिमां कवि कहे छे : "प्रत्येक जिनेश्वरनी संख्या अनुसार वधता अक्षरोवाळी अने अनुप्रासालंकारमय एवी, चोवीश तीर्थंकरोनी, पूर्वना कोई आचार्ये न रची होय तेवी स्तुतिओ मात्र विनोद अर्थे मारा वडे रचाई...” मेधावी जनोनो विनोद पण हेतुलक्षी होय छे, अने ऊर्जा सर्जनात्मक होय छे. अकिंचन तपस्वी मुनिजनो नीरस - रिक्तहृदय नथी होता, तेमना रसस्रोत भिन्न प्रकारना होय छे. एवा रसस्रोतोमांथी ज आवी कृतिओ प्रवाहित थती होय छे आवुं घणुं घणुं आ प्रकारनी कृतिओमांथी तारवी शकाय.
सम्पादके परिशिष्टमां वृत्तोनां गण, नाम वगेरे आप्यां, ते साथे दरेक छन्दोनी यतिओनी विगत पण नोंधी होत तो छन्दोनी गानपद्धति समजवामां सहायक बनत.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 93 94 95 96 97 98