Book Title: Anusandhan 2006 02 SrNo 35
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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फेबुआरी - 2006
35
काव्यं ॥ जिनेन्द्रकल्पोत्तममर्त्यकल्प-रत्नाकरं धर्मकथानुयोगैः ।। स्वसाध्यसंसाधनसाधनाय युगानुयोगागमकं यजामि ॥१॥ ह्रीं श्रीदृष्टिवादे ॥ अनुयोगसूत्रेभ्यः कु० ॥४॥
ढाल ॥ हिव चूलिकाजी पांचमो श्रुति सूत्र धार ए । चउ द्वादशजी गज काष्टा सुखकार ए । सहु एकत्रजी अतिशय परिमित भाव ए । आदिम चउजी पूरव चूलिका ध्याव ए ।
त्रूटक ॥ ध्यावज्यो मुनिवर अनुक्रमें कर विविध अरथ निधान ए । चूलिका संयुत जलधिपूरव रहित शेष सुजान ए । किम अंगचूलिका वंगचूलिका व्यवहारचूलिकादि भाव ए । भवि शुद्ध भावें चूलिका श्रुति कुसुमांजलि चाढो ध्याव ए ॥५॥ हीं श्रीदृष्टिवादे चूलिकासूत्रेभ्यः ॥ कु० ॥५॥
इति पंच कुसुमांजलि ॥
दोहा ॥ बारम अंगगत तीसरो, पूरवगत अधिकार । तिन कारन परथम भणी, कुसुमांजलि सुविचार ॥१॥ हिव परतेकें वरणउं, पूरव चउद विधान । मुनिवर भावे सेवना, सरावग दरव-परधान ॥२॥
ढाल ॥ पंच कल्याणकं ॥ ए चाल || राग देशाख । पुरव उत्तर मुखें पीठत्रिक रचि सखें । विविध मणिरतन वर भासकं ॥ अ० ॥ भा० ॥१॥ चवद पुसतक धरी थापना आदरी । करीय वास-पूज उल्हासकं ॥ अ० ॥ ल्हा० ॥२॥ नान उपगरण सुचि चवद चाढो रुचि । चवद वसुदरव पूज आदरो ||अ० ॥आ०॥३॥
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