Book Title: Anusandhan 2004 07 SrNo 28
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 8
________________ July-2004 प्रयोग कविसमयमा प्रचलित होय तो ते विष हुं अजाण छु. २०निन्दाष्टक ते अन्यत्र 'आत्मनिन्दाष्टक'ना नामे प्रसिद्ध छे. कठोर रीते स्व-आलोचना होवाने कारणे जैन साधुसंघमां आ अष्टकने खास प्रचार नथी मळ्यो. आ अष्टक ई. १८९६मां निर्णयसागर प्रेस द्वारा प्रकाशित 'काव्यमाला'ना ७मा गुच्छमां पृ. ९५-९६ मां प्रगट थयेल छे. त्यां पण तेना कर्ता, नाम नोंधायुं नथी. ते वाचनामां मळतां त्रणेक पाठान्तरो अत्रे टिप्पणीरुपे नोंध्यां छे; तथा तेमां रहेल क्षतिओ आ मुद्रणना आधारे सुधारी शकाय तेम छे. त्यां जोवा मळती क्षतिओ आ प्रमाणे छे : 'कर्मक्लेशविनाशसंभवविमुख्या(मुख्या)न्यद्यापि नो लेभिरे' (५) 'किमचरमगुणस्थानकं कर्मदोषात्' (६) 'शय्यापुस्तकपुस्तकोपकरणं' (७) "नितरामाजन्मवृद्धा वयं' (७) 'वणिग्दुर्वासनाशात्मिनाम्' (८) 'कोपेयं कृपणोऽकृपापरिवृतैः (?) कार्य' (९) आ तमाम पाठो प्रस्तुत प्रतिमां शुद्धस्वरूपे जोवा मळे छे. वधुमां त्यां ९-१० पद्योमां व्यत्यय जोवा मळे छे. आ अष्टकोमा संकलित सुभाषितो अने अन्योक्तिओ अत्यन्त प्रसन्नकर छे. एमांये केटलांक पद्यो तो वारंवार वांचवा-गावा गमे तेवां अने हृदयवेधी छे. कोई सहृदय भावक आ सुभाषितो, रसदर्शन करावे तो सरस रसास्वादकृति सर्जाय तेम छे. अष्टकानि ॥ (अज्ञातकर्तृकः सुभाषितसञ्चयः) . (१) यः सन्तापं गाङ्गं सन्त्यन्यत्रापि तटगतं स्मरसि । अपसरणमथ स्थित्वा गदितं हंसाष्टकं नाम ॥१॥ यः सन्तापमपाकरोति जगतां यश्चोपकारक्षमः सर्वेषाममृतात्मकेन वपुषा प्रीणाति नेत्राणि यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 110