Book Title: Anusandhan 2004 07 SrNo 28
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
View full book text
________________
July-2004
AV
दीसई कुतिग विविह परि, सघले वचन वदंति सजण दुजण अंतरु, जाणिजइ परदेसि ॥१०६।। इम चीतवतुं नीकलिउं, निसि भरि खडगह बेलि पोलि बाहरी जाई करी, ईधण मेल्ही हेल ॥१०७॥ मृतक माहि मूकी करी, चिहि परजाली एक पोलइ परगट बंधीउं, पत्र लखी सविवेक ॥१०८।। मइ अन्याय कीयउ घणउ, खमयो सहूइ लोक आपणपुं मइ छइ दहुं, कोई म करयो शोक ॥१०९।। पत्र लिखी इम वालीउ, आघउ वनह मझारि पाछलि वसुदेव सोधीउ, समुद्रविजय दुःख भारि ॥११०॥ पत्र लिखिउ देखी करी, समुद्रविजय भूपाल वाचंति धरणि ढलिउ, बंधुसहित तत्काल ॥११॥
राग केदारुं समुद्रविजय विलवलइ घणउं रे, साथइ सहू परिवार हा हा देव किसिउं कीउं रे, सूनु आज संसार ॥११२॥ बंधव जी कांई मेल्हीउ गयु ............... तुं तु विनयवंत वरवीर, तुं तु सोहगसुंदर धीर ॥११३ आंकणी माहरु मोह न आणीउ रे, नीठर थयुं निटोल साद करतां सहोदर रे, एकवार दिई बोल ॥११४॥ बंधव० वीसारतां न वीसरइ रे, तुझ गुण न लहु पार हीअडउ हेजि हेलविउं रे, साथि आवणहार ॥११५।। बंधव० नयण रोअंता रहिइं नहीं रे, जिम निझरणे नीर दुख भरी भूपति इम भणइ रे, दिइ दरिसण मज्झ वीर ॥११६।। पोतइ पुण्य न सींचीउ रे, तु मझ भाय वियोग पुण्य पसाई संपजई रे, सुख संपति संयोग ॥११७॥
...
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International

Page Navigation
1 ... 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110