Book Title: Anusandhan 2004 07 SrNo 28
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 102
________________ July-2004 97 उदार, गुणग्राहक दृष्टि तो उच्च कोटिनी हती ए तथ्य तेमणे रचेला 'विजयदेवमाहात्म्य' ग्रन्थथी सिद्ध थाय छे. पोते खरतरगच्छना होवा छतां तपागच्छाधिपति विजयदेवसूरिना गुणवर्णननो आ ग्रन्थ तेमणे रच्यो हतो. प्रथम परिच्छेदना बीजा श्लोकना बीजा चरणमां एक अक्षर वधु छे, ते कई रीते प्रवेश्यो हशे ए विषय विचारणीय छे, कारण के कवि द्वारा आवी भूल थवी शक्य नथी अने लिपिकार (लहियो) संधि करीने एक वधु शब्द उमेरे ते पण संभवित नथी.श्लो. १४ : ०द्धतां हा' एम छूटुं छपायु छे त्यां 'द्वत्ताहा' एवो समास समजवो जोइए. परिच्छेद २, श्लो. २ : 'ऽऽह तदानव' छे त्यां '०ऽऽहतदानव' एवो समास छे. 'शत्रुजय चैत्य परिपाटिका स्तोत्र' शुद्ध रूपे सम्पादित थयुं छे. रचना सुन्दर, भक्तिरसपूर्ण, गानयोग्य छे. जुदा जुदा समये रचायेली आवी परिपाटीओ गिरिराज पर मन्दिरोनी स्थिति जाणवानुं पण प्रमाणभूत साधन बने. आ कृतिनी हस्तप्रत विशे लेखमां माहिती अपाई नथी. 'नेमराजुललेख' राजीमतीनी विरहव्यथाने नारीसहज तथा लोकभोग्य शैलीमां व्यक्त करे छे. आवां गीत गवाय त्यारे जे असर ऊभी करे ते मात्र वांचवाथी ऊभी न थाय. कडी १७मां 'साधो ते मित्र कहाय' छे. अहीं 'साचो' शब्द स्थानप्राप्त कहेवाय, 'साधो' शब्द अहीं बेसतो नथी. आ लहियानी भूल छे, सम्पादिकाना वाचननी भूल छे के कंप्यूटर ओपरेटर द्वारा थयेली भूल छे तेनो निर्णय सम्बन्धित व्यक्ति करी शके. अघरां शब्दोमां 'रीठ' (कडी १०) पण नोंधवा जेवो हतो. कवि ऋषभदासनी एक अप्रगट रचना आ अंकमां प्रकाश पामे छे. खंभात विस्तारनी तत्कालीन बोली (कविनी अन्य रचनाओमां छे तेवी) आमां पण छे. कविए स्वहस्ते लखेल प्रत परथी सम्पादन थयुं छे, एटले भाषाशास्त्रीओ माटे आ प्रमाणभूत सामग्री गणाय. जैन देरासर नानी खाखर - ३७०४३५ कच्छ, गुजरात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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