Book Title: Anusandhan 2004 07 SrNo 28
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
View full book text
________________
July-2004
87
अपुत्रीणी छते सुत सात, दुक्ख धरंती दीठी मात हरि आराधई हरिणगमेस, देव कहई सांभलि सविवेक ॥३२७॥ देवकिपुत्र हुसइ अतिसार, चारित्र लेसिइ त्यजी संसार थानकि इम कही गिउ देव, देवकि गर्भ उपन्न हेव ॥३२८॥ पूरे दिने सुत आव्यु जाम, गयसुकुमाल दीउ तसु नाम, वृद्धिवंत गुणवंतु वीर, पुण्यप्रभावइ गुणगंभीर ॥३२९।। राजकन्या नइ विप्रह सुता, सोमशर्म नामि तस पिता करीय महोत्सव माधव सोइ, तव परणाविउ कन्या दोइ ॥३३०॥ समोसरीआ तव श्री जिनराय, भवियण बइसइ पणमीय पाय जिन भाखइ संसार प्रपंच, सुणइ सहू सुर नर तिर्यंच ॥३३१।। जामण मरण दुक्ख भंडार, चिहुं गते कहीइ संसार फिरि फिरि जीव भमिउ बहुवार, भवसायर नवि लाधउ पार ॥३३२।। धनयौवन जे हूंउ जलबिंद, जीवी कृष्णपक्षि जिम चंद राजरिद्धि नइ रमणी रंग, निश्चल जाणे नीर तरंग ॥३३३।। दुलह माणसनुं भव लही, जिणवाणी आराधउ सही दुक्ख तणउ जिम आणी अंत, प्राणी पामउ सुक्ख अनंत ॥३३४॥ इसिउ सुणी जिण वयण रसाल, मनि संवेगी गयसुकुमाल यौवनवय परहरीय बि नारी, कीधउ चारित्र अंगीकार ॥३३५॥ जइ मसाणि ऋषि कासग करइ, ससरु तिहां रीसइ वरइ मस्तकि बाधि माटी पालि, अति अंगारे भरी विचालि ॥३३६।। क्षमावंत मुनिवर चउसाल, धन धन गिरुउ गयसुकुमाल देह दाझतई सघला कर्म, परजाली पामिउ शिवशर्म ॥३३७।। हिव हरि पूछई जिन कहइ वात, द्वारिका नगरीनुं अवदात कोपि कुमर तुझ अवराह, द्वीपायन रिषि करसइ दाह ॥३३८||
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110