Book Title: Anusandhan 2004 07 SrNo 28
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 54
________________ July-2004 49 ५७ बिहु भेदे देवी हुइ अ सौधर्मइ ईशानि तु, एक कुलवधू सरिखी, इतर वेश्या सरिखी मानि तु, सौधर्मइ कुलवहु तणुंअ, वेश्या सरिखी जेह तु, पल्य सात पंचासनु अ आय उत्कृष्टउं तेह तु. लघु एक पल्योपम कहिउं अ इंम ईशान मझारि तु, नव पल्य पंचावन तणुं अ अनुक्रमि हईडइ धारि तु, लघु साधिक एक पल्य- अ अहिं देवी उपपात तु, गति सहसार लगइ परि अ सुर केवल बहु सात तु. (वस्तु) इंणइ अनुक्रर्मि [इणई] अनुक्रमि काल अस्संख, थावर चिहुं मांहिं वस्यु काले नंत वण कांइ जाणुं अ, विगल असन्नी संख पुण असंख तिरिय नरमांहिं आणुं अ, तेत्रीस सागर गुरुअ लहु वरस सहस दस मान, सुर नारक लहु सेसनई अंतमुहुत्त समान. ५८ (राग मेवाडु धन्यासी) एणी पर प्राणी हो काल अनादि तु, पामी चिहुं गति आय, नव नव वेसे हो रंगिसुं रम्यु, हवि पाम्या तुह्म पाय, सुणि सुणि स्वामी हो मोरी वीनती, तु प्रभु परम दयाल, बंधन छोडी हो आठइ कर्मनां, आपु सुक्ख विशाल. सुणिसुणि० ५९ ज्ञानवरणी हो ज्ञाननई आवरइ, दरिसनी दरसन रोध, वेदनी दुखसुखनुं देवं करइ, मोहनी बोध संरोध. सुणिसुणि० ६० हडिनई सरिखां हो चिहु गतिनां दीइ, पंचम कर्म ते आय, नाम प्रभाविं हो नरगादिक तणा, पामइ नवनवा काय.सुणिसुणि० ६१ उंचे-नीचे हो गोत्रे आंणीउ, आठमुं जे अंतराय, तेह प्रभाविं हो एणइं प्राणीइं, दानादिक नवि थाइ. सुणिसुणि० ६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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