Book Title: Anusandhan 2004 07 SrNo 28
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
View full book text
________________
July-2004
35
(इन्द्रवज्रा) स्वः सिन्धुपानीयसमानराजधुष्मद्यशोमंजुलमण्डलाल्या । विस्तारवत्या नभसा तदातर्देदीप्यते चन्द्र इवोष्णरश्मिः ॥१०॥
(इन्द्रवंशा) श्रीपार्श्वनाथस्स ददातु मङ्गलं, स्फूर्जद्यशोभिर्गुरुभिर्यदीयकैः । क्षीराम्बुनिध्यंतरशुभ्रिमोपमैर्देदीप्यते रूप्यनिभं हि कज्जलं ॥११॥
(स्रग्धराच्छन्दः) इत्थं श्रीपार्श्वनाथः शमयमवितदुर्मन्मथो वल्गुमार्गे, मुक्तिश्रीपत्तनाप्तोर्भवतु भुवि विशां भावुकानां प्रदाता । स्फूर्जत्छीपाठकज्ञानविमलसुगुरूपास्तिरक्तेन भक्त्या, धीमच्छ्रीवल्लभेन स्तुतकृतवचसा सत्समस्यास्तवेन ॥१२।।
इति श्रीतिमिरीपुरीश्वरश्रीपार्श्वनाथजिनराजप्रशस्य-समस्यास्तोत्रं समाप्तम् ।
कृतिरियं श्रीज्ञानविमलोपाध्यायमिश्राणां चरणसरसीरुहचञ्चरीकप्रकार
वाचनाचार्यश्रीवल्लभगणीनामिति ।
श्रीरस्तु ||
C/o. प्राकृत भारती 13-A, मैन मालवीय नगर
जयपुर-३०२०१७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110