Book Title: Anekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 4
________________ धर्मस्थल में भ. बाहुबली a डा० ज्योतिप्रसाद जैन 'विद्यावारिधि प्रायः समस्त प्राचीन भारतीय धर्मों का उदय उत्तर पर्याप्त मख्या मे निवास था। चौवीस तीर्थकरो में से भारत में हुआ, किन्तु उनके पोपण, विकास एवं प्रचार- अधिकाश की, और विशेष रूप मे ऋपभदेव, अजितनाथ, प्रसार का प्रधान श्रेय दक्षिण भारत को रहा है। वैदिक चन्द्रप्रभु, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर मत्रों की रचना सरस्वती-यमुना-गगा तटवर्ती ऋपियों की विभिन्ना कालो की अनगिनन खडिन-अखडित मूर्तियों ने की तो वेदों के प्रमुख भाष्यकार सायणाचार्य की यत्र-नन विद्यमानता दक्षिण भारत मे उवा नीर्थकरो की मेघातिथि आदि दक्षिण में हुए। वेदान्त के सर्वोपरि उपासना चिरकाल में चन आने की योक है। किमी भी प्रस्तोता तथा ब्राह्मण धर्मदर्शन में नवप्राण मवार तीर्थकर के गर्भ-जन्म-दीक्षा-ज्ञान-निर्वाण कल्याणको में मे करने वाले शकराचार्य और उनके सुयोग्य गिप्य मडन- कभी दक्षिण भाग ने किगीम्मान में नहीं हा, अन मिश्र ही नहीं प्राय. अन्य समस्त प्रमुख वेदाचार्य तथा वहाँ कोई भी कपाणक क्षेत्र गा मिटान नहीं है, नथापि वणवाचार्य दक्षिण भारतीय थे। नागार्जुन, दिनाग, जैथिभणा की गोभूमिपा, गाधना रान, ममाधिमरणधर्मकीर्ति, धर्मोत्तर प्रभृति उद्भट बौद्धाचार्य भी दक्षिण मे म्मारक, गटदिर, कलापूर्ण जिनान प. जिनमदिर-नगर, ही हुए, और प्राय समस्त दिग्गज जैनाचार्य भी, विशेषकर मानम्तम्भ, अनिणय क्षेत्र, कलाधाम और मास्कृतिक केन्द्र दिगम्बर परम्परा के, दक्षिणी ही थे । इस प्रकार भारतीय कर्णाटक राज्य में तो पग-पग पर प्राप्त होते ही हे आन्ध्र, सस्कृति, साहित्य एव कला के भारतीय धर्मो एव दर्शनी , महागाद, तमिल, केरल आदि राज्यों में भी अनेक है। के संरक्षण, पोपण एव विकास में दक्षिण भारत का रोग कदन, गग, चालुग, गदाट, होमल, विजयनगर, दान उत्तर भारत की अपेक्षा कुछ अधिक ही रहा है. एग ___ मैमूर आदि प्राचीन एव मध्यकालीन गज्या का हृद्थल कथन में कदाचित कोई अत्युक्ति नहीं है। सुरम्य कर्णाटक देण अपने मास्कृतिक वैभनके कारण महादेश जैनधर्म का प्रसार दक्षिण भारत मे रवय आदिगुरुण भारत के अतीत तथा वर्तमान में भी गौन्यपूर्ण स्थान रखता भगवान ऋषभदेव के समय में ही रहता आया है, यह है। इनी कर्णाटक राज में श्री धर्मस्थल जमा अदभत पुराण प्रसिद्ध तथ्य है। ऐतिहासिक काल में तो प्राय । धार्मिक केन्द्र है, जिसके प्रधान आराध्यदेव तो मजुनाथेश्वर प्रारम्भ से ही उस भूभाग मे जैनधर्म के अस्तित्व के महादेव (शिव) हे, किन्तु र पुराहिल-गुजारी वैष्णव लक्ष्य उपलब्ध है । पार्व, महावीर युगीन करकडु, ब्राह्मण होते है. और मर्वोपरि व्यवस्थापक एव प्रबन्धक जीवधर आदि परमधार्मिक जैन नरेश दक्षिणात्य थे। धर्माधिकारी' उपाविधारी हेग्ग है जो जैनधर्मावलम्बी है। चौथी शती ईसापूर्व के मध्य के लगभग अतिम श्रुतकेवलि मुलत. इस स्थान का नाम 'कुड्भा' था। लगभग भद्रबाहु द्वादशवीय महादुष्काल का पूर्वाभास पाकर जब आठ मौ वर्ष पूर्व श्री वर्मण्ण हेगडे अपनी धर्मपत्नी श्रीमती अपने १२००० निर्ग्रन्थ मुनि-शिष्यो सहित उत्तर भारत से अम्मू बल्लालती सहित इम स्थान पर आकर रहने लगे। विहार करके कर्णाटक देशस्थ कटवप्र पर्वत पर पधारे थे, पति-पत्नी दोनो ही धार्मिक मनोवृत्ति के दानशील जैन जो उस समय भी एक पवित्र जैनतीर्थ के रूप में प्रसिद्ध मद्गृहस्थ थे। अपने आवास के निकट ही उन्होंने अपने था, तो यह तभी सभव था जबकि इन प्रदेशो मे जिनधर्म इप्टदेव तीर्थकर चन्द्रनाथ स्वामी का छोटा-सा सुन्दर पहले से ही विद्यमान था और उसके अनुयायियो का यहाँ जिनालय बना दिया। शैवाचार्य अण्णप्पा स्वामी की प्रेरणा

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