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५६, वर्ष २४, कि०२
, अनेकान्त
इसी प्रकार ग्यारहवीं सन्धि के प्रारम्भ में उल्लिखित है- एक अन्य प्रकार के गीत का निदर्शन है:-' कनकमगिरीन्ने चासिंहासनस्थ:
सरोवरं पफुटट कंजरेण पिजरं, प्रमुदित सुरवृन्दैः स्नापितो यः पयोभिः।
समोयर सगज्ज उभडं सुसायर। सदिशतु जिननाय: सर्वदा सर्वकामा
वर सुमासणं मयारि रुव भीसय, नुपचितशुभराशेः साष साधारणस्य ॥१०॥
सरं मयंस दित्तय सदेव गेहय । जिस समय शान्तिनाथ के मानस में वैराग्य भावता
अहिद मंदिरं सुलोपणित सुदर, हिलोरे लेने लगती है और ये घर-द्वार छोड़ने का विचार
पति वृत्तयं सुरण सय वरं। करते हैं तभी स्वर्ग से लौकान्तिक देव माते हैं और उन्हे
ण तिति घण यासण पालत्तयं सम्बोधते हैं:
अधूमजाल देवमागु ण गिलतय ॥७.१२ चितइ जिणवर णिय मणि जामवि ।
एक अन्य राग का गीत पठनीय है:लोयंती सुर मागइ तामवि ।
हुल्जर सुरक्षा मण रजिएण
हुल्लरु उक्सग विहजिएण। जय जयकार करति णविय सिर । चंग भाविउ तिहुयण सर ।
हल्लरु मुणिमण सतोसिएण
हुल्लह भवियण गण पोसिएण । क्या भगवन् ! प्राप तीर्थ का प्रवर्तन करने वाले है और
हुल्लर तिल्लोयह वियि सेव भक्तजनों के मोह-अन्धकार को दूर करने वाले है। अपभ्रंश क अन्य प्रबन्धकाव्यो की भांति इस रचना
हल्ला ईहिय दय विगय लेव ।।८,२
इस प्रकार के अन्य गीतो से भी भारत यह काव्य में भी चलते हुए कथानक के मध्य प्रसगत: गीतो को सयोजना भी हुई है। ये गीत कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण
साहित्य का पूर्ण प्रानन्द प्रदान करता है। एक तो अप
भ्र श भाषा में और विशेषकर इस भाषा मे रचे गए हैं। उदाहरण के लिए:
गीतों में बलाघातात्मक प्रवृत्ति लक्षित होती है। प्राज मइ महसत्ती वर पण्णती,
तक किसी भी भाषा-शास्त्री तथा अपभ्रंश के विद्वान् का मारुयगामिणि कामवि रूविणि।
ध्यान इस पोर नहीं गया है। किन्तु अपभ्रंश के लगभग हय वह पंणि णीरुणिसुभणि, .
सभी काव्यों में सामान्य रूप से यह प्रवृत्ति लक्षित होती मंधीकरणी प्रायह हरणी ।
है। उदाहरण के लिएसयलपवेसिणि प्रविमावेसिणि,
इके वुल्लाविउ मुक्खगामि, अप्पडिगामिणि विविहविभासिणि।
इक्के विहसाविउ भुवणसामि । 'पासवि छेयणि गहणीरोयणि, ।
इक्के गलिहार विलविय उ, वलणिवाडणि मंडणि ताडणि ।
इक्के मुहेण मुटु चुम्बियउ । मुस्करवाली भीमकराली,
किन्तु बलाघात उदात्त न होकर किंचित् मन्द है। इसी अविरल पहरि विज्जल चलरि ।
प्रकार का प्रन्य उदाहरण है:देवि पहावा भरिणिहाबह
सय सिरिवत्ता मणिय पहिल्ला, लहुबर मंगी भूमि विभंगी ।
पणु कुंटि प्रणिक गहिल्ली। २.तिस्थपवत्तणु करहि भडारा, भवियह फंडहि मोहंधारा। पुण वहिरी कण्ण ण सुणहवाय, गय लोयंतिय एम कहेविणु,
पुण छठ्ठी बुज्जिय पुत्ति जाय । ता जिणवरिण भरहु घर देविणु।
तथा-सन्धि ६, कडवक १९ माराहिवि सोलहकारणाइ, जे सिबमगिरि पारोहणाइ ।