Book Title: Anekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 292
________________ २७०, वर्ष २४,कि.६ पोवात यह अन्य एक महत्त्वपूर्ण कृति था। मापकी दूसरी कृति शासन किया है इससे स्पष्ट है कि पहिच्छत्र में जैन, बहुत छोटी सी 'बिनेन गुण संस्तुति' नाम की है। बोट, वैष्णव भोर शिव के मन्दिर रहे हैं । इन सभी धर्मों जिसका पपर नाम 'पात्र केसरी स्तोत्र' है। जो स्तति ग्रंथ की मूर्तियां भी वहाँ मिली हैं। जो कला की दृष्टि से होते हुए भी उसमें दार्शनिक दृष्टि से महन्त के विविध प्रत्यन्त मूल्यवान हैं । गुणों को अनेक युक्तियो से पुष्ट किया गया है। सन् १८६१-६२ के उत्खनन में डा० फुरहर को इससे स्पष्ट है कि प्राचार्य पात्र केसरी अपने समय पार्श्वनाथ का एक मन्दिर मिला था, जिसकी के बहुत बड़े विद्वान थे। शिला लेखों में सुमति या सुम- तारीख कुशान काल की बतलाई गई है। पौर कई भग्न तिदेव से पहले पात्र स्वामी का नाम प्राता है। उनका दिगम्बर मूर्तियां भी प्राप्त हुई थीं, जिनमे से कुछ पेर सबसे पुरातन लेख बौद्धाचार्य शान्तिरक्षित का समय सन् ६३ से १५२ तक की तारीखें थीं। इसके उत्तर में (ई.७०५-७६३) है। और कणंगोमी का समय ईसा एक छोटे मन्दिर के खडहर भी मिले थे। कटारी खेड़ा की ७वी शताब्दी का उत्तरार्द्ध पोर ८वीं का पूर्वार्द्ध है। से कनिंघम को एक बहुत बड़ी नग्न जैन मूर्ति मिली थी। प्रतः पात्र स्वामी का समय बौद्धाचार्य दिग्नाग (ई. वहाँ डा० फुरहर को जो स्तम्भ मिला था उस पर निम्न ४२५) के बाद और शान्ति रक्षित के मध्य होना चाहिए। लेख अंकित था'-'महाचार्य इन्द्रनन्दि शिष्य पार्व पर्थात् पात्र स्वामी ईसा की छठी शताब्दी के उत्तराई पतिस्स कोट्टारी' इसके अतिरिक्त छोटा पाषाण भी मिला और ७वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध के विद्वान होना चाहिए। था जिस पर नवग्रह बने हुए थे। अहिच्छत्र का उत्खनन इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि पहिच्छत्र प्राचीन काल पहिच्छत्र की खुदाई मे जो बहमूल्य कलात्मक से लामक से ही जैनों का केन्द्र रहा है । वह प्राज भी जैन तीर्थ के वस्तुएं प्राप्त हुई, उनमे मूर्तियां, मिट्टी के वर्तन, पशु- रूप रूप में प्रसिद्ध है। अनेक यात्री वहाँ दर्शन-पूजन के लिए पक्षियों की प्राकृतियाँ, सभा मण्डप, स्तूप और प्रयाग पहुँचते है । वार्षिक मेला भी वहाँ लगता है। पट प्रादि मिले है । सभा मन्दिर और मोहरों से भरा हुमा १. एपि ग्राफिया इडिका जिल्द १०, सन् १६०६-१० वर्तन भी मिला था। अनेक ताँबे के सिक्के भी मिले थे प० १०६.१२१ तथा गजेटियर १६१०, १९११। जो विभिन्न राजवंशों के थे। जिन्होंने अहिच्छत्र पर देखो अहिच्छत्रा पु. जैन दर्शन में आत्म-तत्त्व विचार [पृष्ठ २४६ का शेषांश] मगर विचार करने पर यह सिद्धान्त भी बाल की दीवार की तरह ढह जाता है। क्योकि व्यापक पात्मा शरीर के बाहर पाज तक किसी भी योगी, महात्मा को दिखलाई नहीं दिया है। इसलिए निष्कर्ष यही निकला कि प्रात्मा स्वदेह परिमाण वाला है। स्वामी कार्तिकेय जी ने कहा भी है : लोय पमाणो जीवो देह-पमाणो वि अच्छिदे खेत्ते ।। उग्गाहण-सत्ती दो संहरण विसप्प-धम्मादेण' ॥१७६ अर्थात् जीव लोक प्रमाण है और व्यवहार नय की अपेक्षा देह प्रमाण भी है क्योंकि इसमें संकोच विस्तार करने की शक्ति रहती है। इससे स्पष्ट है पात्मा देह प्रमाण है। १. स्वामी का अनु० गा० १०६

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