Book Title: Anekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 295
________________ ध्यानशतक : एक परिचय २७३ पार्तध्यान-इसके चार भेदों का विवेचन करते हुए धर्मध्यान-इसका विवेचन करते हुए यहाँ प्रपमतः कहा गया है कि मनिष्ट इन्द्रियविषयों के वियोग का दो गाधामों(२८-२९) में भावना, देश, काल, भासनविशेष, एवं भविष्य में उनके प्रसंयोग का निरन्तर चिन्तन, शूल मालम्बन, क्रम, ध्यातव्य, ध्याता, अनुप्रेक्षा, लेश्या, लिंग व शिरोरोगादि जनित वेदना के वियोग का एवं भविष्य और फल; इन बारह द्वारों-उक्त धर्मध्यान के प्ररूपक में उनके पुनः उद्भूत न होने का चिन्तन, अभीष्ट इन्द्रिय- अन्तराधिकारी-का निर्देश करते हुए उनको जानकर विषयों के सर्वदा बने रहने का चिन्तन, तथा इन्द्र व चक्र- मुनि से उसके चिन्तन के लिए प्रेरणा की गई है। तत्पवर्ती भादि की विभूति को प्रार्थना; यह सब मार्तध्यान श्चात् इम धर्मध्यान का अभ्यास हो जाने पर ध्याता को है । वह राग, द्वेष व मोह से कलुषित रहने वाले प्राणियों शुक्लध्यान की पोर प्राकृष्ट किया गया है। प्रागे क्रमशः के होता है जो तियंचगति का प्रधान कारण होने से संमार उक्त बारह द्वारों के अनुसार उस धर्मध्यान का विवेचन का बढ़ाने वाला है। इष्टवियोग व अनिष्ट संयोग आदि किया गया है । के निमित्त से जो शोक व विलाप प्रादि होता है, ये १. भावना-भावनामो के द्वारा धर्मध्यान का पूर्व उसके परिचायक लिंग है। वह अविरत-मिथ्यादृष्टि व में अभ्यास कर लेने पर ध्याता चकि ध्यान की योग्यता सम्यग्दृष्टि, देशविरत (धावक) और प्रमादयुक्त सयत को प्राप्त होता है, इसीलिए उन भावनाओं का जान लेना जीवों के होता है। (गा.५-१० व १८) रौद्रध्यान-यह भी हिसानुबन्धी, मृषानुबन्धी, आवश्यक है । वे भावनाएं चार है-ज्ञान, दर्शन, चारित्र स्तेयानुबन्धी और विषयसंरक्षणानुबन्धी के भेद से चार और वैराग्य । ज्ञान (श्रुत) के प्रयास से मन की प्रवृत्ति प्रकार का है। रौद्रध्यानी प्राणी सदा क्रोध के वशीभूत होता प्रशुभ को छोड़कर शुभ व्यापार में होती है तथा उसके हुमा निर्दयतापूर्ण अन्तःकरण से दूसरे प्राणियो के बघ, प्राश्रय से जीवादि तत्त्वों का यथार्थ बोध होता है, जिससे बन्धन एवं जलाने प्रादि का चिन्तन किश करता है। वह ध्याता स्थिरबुद्धि होकर ध्यान में प्रवृत्त होता है। यह धूर्तता से अपने पापाचरण को छिपाता हुमा अनेक प्रकार ज्ञान-भावना का प्रभाव है । जो सम्यक्त्व के प्रतिचार रूप से असत्य, कठोर एव गहित प्रादि भाषण करता है; तीव्र शका-कांक्षा प्रादि दोषों से रहित होता हुमा प्रशमादिक्रोध व लोभ से अभिभूत होकर निरन्तर दूसरे के द्रव्य के प्रशम'. सवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और प्रास्तिक्य-गुणों के अपहरण का विचार करता हुआ उससे होने वाली साथ जिनशासनविषयक स्थिरता प्रादि गुणो से युक्त नरकादि दुर्गति की ओर भी ध्यान नहीं देता तथा विषयो होता है उसका होता है उसका सम्यग्दर्शन विशुद्ध होता है। इस विशुद्ध के साधनभूत धन के सरक्षण मे सदा व्यापत रहता हुपा - सम्यग्दर्शन के प्रभाव से नह ध्यान के विषय मे निश्चल 'न जाने कोन कब क्या करेगा' इस प्रकार से शंकाल होता है। यह दर्शनभावना की महिमा है। चारित्रहोकर मभी के धात का कलुषित विचार किया करता है। भावना से-सर्वसावधनिवृत्तिरूप चारित्र के प्रयास से यह चारों प्रकार का रोद्रध्यान चूंकि राग, द्वेष व मोह -नवीन कर्मों का अनास्रव (सवर) और पूर्वसचित से मलिन जीव के होता है; इसीलिए वह नरकगति का मूल कर्म की निर्जरा होती है, इससे ध्याता अनायास ही ध्यान कारण होकर संसार का-~जन्म-मरण की परम्परा का-- को प्राप्त होता है। वैराग्यभावना से मन के सुवासित बढ़ाने वाला है । रौद्रध्यानो निर्दय होकर दूसरो की र हो जाने पर जगत् के स्वभाव का ज्ञाता ध्याता विषया है विपत्ति में अकारण ही हपित होता है तथा इसके लिए ३. गाथोक्त (३२) 'पसम' शब्द के अभिप्राय को स्पष्ट वह कभी पश्चाताप भी नहीं करता। इसके अतिरिक्त करते हुए हरिभद्र सूरि ने प्रथमतः उसका सस्कृत वह स्वय पाप कार्य करके यानन्द का अनुभव करता है। रूप प्रश्रम' मानकर उसका अर्थ स्व-पर तत्त्व के पधि(गा. १६.२४) गमविषयक प्रकृष्ट खेद किया है, तत्पश्चात् विकल्प १. तुलनात्मक अध्ययन के लिए देखिये । त. सू.६, २७१४ रूप में 'प्रशम' संस्कृत रूप को ग्रहण करके उससे २.त. सू. ६-३५. प्रकृत प्रशमादि पाँच गुणों को ग्रहण किया गया है।

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