________________
२७६. वर्ष २४, कि० ६
मनेकान्त
गादि रूप माठ प्रकार के कर्म मल को शुद्ध करता है अथवा शोक को दूर करता है उसका नाम शुक्लध्यान है। इस शुक्लध्यान की प्ररूपणा मे भी वे ही बारह द्वार हैं जिनका निरूपण धर्मध्यान में किया जा चुका है। उनमे भावना, देश, काल धोर पासनविशेष इनकी प्ररूपणा घध्यान के ही समान हैं—उससे कुछ विशेषता नहीं है— इसीलिये इनका निरूपण यहां फिर से नहीं किया गया है ।
प्रालम्बन-- क्रोध, मान, माया और लोभ के परि त्यागस्वरूप, क्रम से क्षान्ति, मार्दव, प्रार्जव प्रौर मुक्ति ये प्रकृत शुक्लध्यान के श्रालम्बन है; जिनके माश्रय से मुनि उस पर आरूढ होता है ।
1
क्रम - प्रथम दो शुक्लध्यानो के क्रम का कथन धर्मध्यान के प्रकरण में किया जा चुका है (४४) । विशेषता यहां यह है कि छद्मस्थ (पल्प) ध्याता तीनों लोकों को विषय करने वाले मन को क्रम से प्रतिवस्तु के परित्याग रूप परिपाटी से - परमाणु में सकुचित करके श्रतिशय निश्चल होता हुआ शुक्लध्यान का चिन्तन करता है। तत्पश्चात् प्रयत्नपूर्वक मन को उससे भी हटाकर अमन ( मन से रहित ) जिन होता हुआ अन्तिम दो शुक्लध्यानों का ध्याता होता है । उनमे भी शैलेशी प्रवस्था की प्राप्ति के पूर्व पन्तमुहूर्त सूक्ष्मक्रियानिवृत्तिशुक्लध्यान का ध्याता होता है और नेशी धवस्था मे अन्तिम स्युपरतक्रिया प्रतिपाती शुक्लध्यान का ध्याता होता है । उपत छद्मस्थ ध्याता तीनों लोकों के विषय करने वाले मन को किस प्रकार से परमाणु में संकुचित करता है और तत्पश्चात् उससे भी उसे कैसे हटाता है, इसे निम्न दो-तीन उदाहरणों द्वारा स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार मान्त्रिक सब शरीर मे व्याप्त विच्छू आदि के विष को मत्र द्वारा डंक ( भक्षणस्थान ) मे रोकता है मौर तत्पश्चात् अतिशय प्रधान मंत्र के योग से उसे डक से भी दूर कर देता है उसी प्रकार तीनो लोको के विषय करने वाले मन रूप विष को ध्यान रूप मत्र के सामर्थ्य से जिनदेव रूप वैद्य उसे परमाणु में स्थापित करता है और तत्पश्चात् उससे भी उसे हटा देता है । अथवा जिस प्रकार ईधन के समूह को क्रम से हटाने पर श्रग्नि अल्प मात्रा में
शेष रह जाती है और पन्त में थोड़े से शेष रहे ईधन के भी हट जाने पर वह पूर्णतया बुझ जाती है इसी प्रकार प्रकृत मन के विषय में भी समझना चाहिये। इसी प्रकार क्रम से वचनयोग का पौर काययोग का भी निरोध कर केशो के स्वामी मेरु के समान स्थिर होकर शैलेशी' केवली हो जाता है ।
ध्यातव्य - पूर्वगत श्रुत के अनुसार अनेक नयों के माश्रय से उत्पाद, स्थिति और भंग (व्यय) आदि पर्यायों का जो प्रण प्रादि रूप एक द्रव्य मे चिन्तन होता है यह पृथक्त्ववितकं सविचार नाम का प्रथम शुक्लध्यान है । वह राग परिणाम से रहित ( वीतराग ) के होता है । पर्व (द्रव्य), व्यजन (शब्द) और योग इनके सक्रमण-अर्थ से व्यंजन व व्यंजन से अर्थ आदि के परिवर्तनका नाम विचार है। इस विचार से सहित होने के कारण इसे सविचार कहा गया है (७८ ) । जो चित्त ( प्रन्तःकरण ) वायुविहीन दीपक के समान अतिशय निश्चल रहकर पूर्वोक्त उत्पादादि पर्यायों में से किसी एक ही पर्याय को विषय करता है। वह पूर्वोक्त विचार से रहित होने के कारण एकत्ववितर्क- अविचार (द्वितीय) शुक्लध्यान कहलाता है' (८०) । यह भी पूर्वगत श्रुत के अनुसार होता है । निर्वाणकाल मे कुछ योगों का विरोध करने वाले मन व वचन योगों का पूर्णतया निशेध करके साये काययोग का भी निरोध कर देने वाले केवली के तीसरा - सूक्ष्म क्रिया अनिवर्ती शुक्लध्यान होता है उस समय केवली के उच्छ्वास निःश्वास रूप सूक्ष्म काय की क्रिया रह जाती है। वे ही केवली योगों का पूर्ण रूप से निशेष हो
--
१. शैलेशी का अर्थ हरिभद्र सूरि ने कुछ प्राचीन गाथानों
के आधार से अनेक प्रकार किया है। जैसे- १ शैलेश (मेरु) के समान जो स्थिरता को प्राप्त हो चुका है उसे शैलेशी कहा जाता है, २ शैल के समान स्थिर ( अडिग ) ऋषि शैलपि ( प्रा. संलेसी) कहलाता है, लेशी पर्यात् लेश्या से रहित वही केवली, यहां 'अ' का लोप हो गया है, ४ शील का अर्थ सर्वसंवर है, उसका जो ईश (स्वामी) हो चुका है वह शीलेश या शैलेशी है।
२. . . ६, ४१.४४ ।