Book Title: Anekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 299
________________ ध्यानशतक : एक परिचय २७७ जाने पर जब शैल (पर्वत) के समान स्थिर होकर शैलेशी कारणभूत ध्यान को उनके मानना ही चाहिये। तीसरा भाव को प्राप्त हो जाते हैं तब उनके व्युच्छिन्नक्रिया- हेतु शब्द की प्रर्थबहुलता है। तदनुसार शब्द के अनेक अप्रतिपाती (अनूपरत स्वभाववाला) नाम का चौथा परम अर्थ सम्भव होने से यहां ध्यान शब्द का काययोग के शुक्लध्यान होता है। निरोध रूप अर्थ ग्रहण करना चाहिए। मन्तिम (चौथा) उक्त चार शुक्लध्यानों में प्रथम-पृथक्त्ववितक- हेतु जिनागम है, जिसका अभिप्राय यह है कि ऐसे प्रतीसविचार शुक्लध्यान-मन प्रादि एक योग में अथवा सभी न्द्रिय पदार्थो के सदभाव के विषय में पागम को प्रमाणयोगो में होता है। दूसरा-एकत्ववितर्क अविचार शुक्ल- भूत मानना चाहिए। ध्यान-तीन योगो मे से किसी एक ही योग वाले के होता अनुप्रेक्षा-जिमका अन्तःकरण शक्लध्यान से सुवाहै, क्योकि इसमे योगसंक्रमण का अभाव हो चुका है। सित हो चुका है वह ध्यान के समाप्त हो जाने पर भी तीसरा-सूक्ष्मक्रिया-प्रनिवर्ती शुक्लध्यान-एक काय- चारित्र से सम्पन्न ध्याता प्रास्रवद्वाराऽपाय, ससाराऽशुयोगमे ही होता है, अन्य किसी योगमे नही होता है । चौथा भानुभाव, अनन्त भवसन्तान और वस्तुप्रो का विपरि -व्यपरतक्रिया-प्रप्रतिपाती शुक्ल ध्यान काययोग का भी णाम; इन चार अनुप्रेक्षानों का चिन्तन करता है। पूर्णतया निरोध कर देने वाले प्रयोगकेवली के होता लेश्या-प्रादि के दा शुक्लध्यानो के ममय सामान्य स शुक्ल लेश्या और तीमरे में परम शकनलेश्या रहती है। यहाँ यह शका हो सकती थी कि केवली के जब मन चोथा शक्नध्यान लेश्या में रहित है। नष्ट हो चुका है तब उनके अन्तिम दो शुक्लध्यान कैसे लिंग-अवघ, प्रसम्मोह, विवेक और व्युत्मर्ग ये उस सम्भव है, क्योकि मनविशेष का नाम ही तो ध्यान है। शुक्ल ध्यान के लिंग-ग्रनुमापक हेतु है ; जिनसे यह जाना इसके समाधान रूप मे यहाँ यह कहा गया है कि जिस जाता है कि मुनि का चित्त शक्नध्यान में निरत है। प्रकार छनस्थ के अतिशय निश्चल मन का ध्यान कहा शुक्लध्यानी परीषहो । उपसगों के द्वाग न ध्यान में जाता है उसी प्रकार केवली के अतिशय निश्चल काय को विचलित होता है और न भयभीत होता है, यह अवध ध्यान कहा जाता है। कारण यह कि योगसामान्य की लिंग है । वह सूक्ष्म पदार्थों के विषय मे व अनेक प्रकार की अपेक्षा मनयोग और काययोग मे कुछ विशेषता नही है। देवमाया में सम्मोह को प्राप्त नही होता। वह प्रात्मा इस पर पुनः यह शका उपस्थित हो सकती थी कि को शरीर प्रादि से भिन्न देखता है, यह विवेक लिंग है । प्रयोगकेवली के तो काययोग का भी निरोध हो चुका है, तथा वह शरीर और अन्य बाह्य उपधि का परित्याग करता फिर ऐसी अवस्था मे उनके चौथा शुक्लध्यान कैसे माना है, यह उसका व्यत्सर्ग लिंग है। जा सकता है ? इसके समाधान में कहा गया है कि जिस फल-धर्मध्यानके फलरूप मे जिन शुम भासाव मादि प्रकार कुम्हार का चाक' धूमने के निमित्तभूत दण्ड के का निर्देश पूर्वमे (देखो पीछे प.२७५)किया गया है वे उनकी अलग कर देने पर भी पूर्व के प्रयोग से घूमता रहता है प्राप्ति अनुत्तर विमानवासी देवो के सुख की प्राप्ति, यह उसी प्रकार केवली के मन प्रादि योगों का प्रभाव हो [शेष टाइटिल पेज ३ पर] जाने पर भी उपयोग के सद्भाव मे भावमन के रहने से ३. त. सू. ६-२६ मे अभ्यन्तर तप के भेदभूत व्युत्सर्ग केवली के भी ध्यान सम्भव है। दूसरा हेतु कर्म निर्जरा तप के दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-बायोपधिदिया गया है। जिसका अभिप्राय है यह कि निजंरा का व्यत्म और अभ्यन्तर-उपधिव्यत्सर्ग। इनमें बाह्यकारण जब ध्यान है तब उस कर्मनिर्जरा के होने से उसके उपधिव्युत्सर्ग मे धन-धान्यादि बाह्य परिग्रह का १.त. सू. ६-४०। त्याग तथा अभ्यन्तर-उपधिव्युत्सर्ग मे कषायो व २. त. सू. १०-७ मे इसका दृष्टान्त मुक्त जीव के शरीर का त्याग अभिप्रेत रहा है (स. सि. ६-२६ व ऊर्ध्वगमन को सिद्ध करते हुए दिया गया है। त. भा. ६-२६)।

Loading...

Page Navigation
1 ... 297 298 299 300 301 302 303 304 305