Book Title: Anekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 294
________________ २७२, वर्ष २४, कि०६ अनेकान्त .." २० रौद्र ध्यानो की उपेक्षा करके अधिकांश गाथायें धर्मध्यान के कहने की प्रतिज्ञा की है। इससे ऐसा प्रतीत होता है प्रकरण की उद्घत की हैं, कुछ गाथाये शुक्लध्यान प्रकरण कि ग्रन्थकार की दृष्टि में प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम ध्यानाकी भी है। ध्यानशतक की जिन गाथानों को षट् खण्डा. ध्ययन रहा है। पर जैसा कि ऊपर निर्देश किया गया है, गम की उक्त टीका में उद्धृत किया गया है उनकी क्रमिक हरिभद्र सूरि ने उसका उल्लेख 'ध्यानशतक' नाम से संख्या इस प्रकार है किया है। ध्यानशतक धवला पु. १३ ध्यानसामान्य का लक्षण व काल-यहाँ स्थिर पृष्ठ गा. अध्यवसान को-एकाग्रता का अवलम्बन लेने वाली मन ... ६४ १२ की परिणति को-ध्यान कहा गया है। वह एक वस्तु३६.४० ६६ १४.१५ विषयक छद्मस्थ (अल्पज्ञ) जीवो के अन्तर्मुहूर्त काल तक ३७ ही हो सकता है, इससे अधिक काल तक वह नहीं हो ६६-६७ १७-१८ सकता । इस स्थिर अध्यवसानरूप ध्यान को छोड़कर जो ... ६७ १६ मन की च चलता होती है उसे चित्त कहा गया है जो भावना, अनुप्रेक्षा अथवा चिन्ता स्वरूप है। ध्यान के ४२-४३ २१-२२ ३०-३४ . २३.२७ अभ्यास की क्रिया का नाम भावना है। ध्यान से च्युत ४५-४६ ... ७१ होने पर जो मन की चेष्टा होती है उसे अनुप्रेक्षा कहा ३३-३७ गया है। भावना व अनुप्रेक्षा से रहित मन की प्रवृत्ति का ४१ नाम चिन्ता है। ५२-५६ ४३-४७ केवलियो का ध्यान चित्त की स्थिरतारूप न होकर योगो के निरोधस्वरूप है प्रोर वह उन्ही के होता है, ६६.६८ ५३-५५ छनस्थों के नही होता। ६३. ... छद्मस्थों के अन्तर्मुहुर्त के बाद या तो पूर्वोक्त चिन्ता १०२ ... ... ... ५७ होती है या फिर ध्यानान्तर होता है। ध्यानान्तर से ___ दोनों ग्रन्थगत इन गाथानों में जो थोडा सा शब्दभेद यहाँ अन्य ध्यान का अभिप्राय नहीं रहा, किन्तु उससे है वह प्रायः नगण्य है। जैसे-होज्ज होइ, झाइज्जा- भावना या अनुप्रेक्षारूप चित्त को ग्रहण किया गया है। ज्झाएजजो, पसम थेज्जाइ -पसमत्येयादि इत्यादि । इस प्रकार का ध्यानान्तर उसके पश्चात् होने वाले ध्यान ग्रन्थ का विषय-परिचय के होने पर ही सम्भव है । इस प्रकार बहुत-प्रन्यान्यग्रन्थ के प्रारम्भ में ग्रन्थकर्ता ने शक्लध्यानरूप अग्नि वस्तुओं के संक्रमण द्वारा ध्यान की परम्परा दीर्घ काल के द्वारा कर्मरूप इंधन को भस्मसात् कर देने वाले योगी. तक भी सम्भव है।। श्वर' वीर जिनेन्द्र को नमस्कार करते हुए ध्यानाध्ययन ध्यान के भेद-वह ध्यान प्रात, रौद्र, धर्म और १. गाथाक्त 'जोईसर' शब्द का अर्थ रिभट सरिर शुक्ल के भेद से चार प्रकार का है। इनमे अन्तिम दो श्वर योगोश्वर वा किया है। योगेश्वर के अर्थ को धर्म और शुक्ल-ध्यान निर्वाण (मुक्ति) के साधक हैं प्रगट करते हुए उन्होंने वीर को अनुपम योगो से और प्रादि के दो-पात और रोद्र-संसार के कारण प्रधान बतलाया है। तत्पश्चात् विकल्प रूप में _है। यह सामान्य निर्देश है। विशेष रूप से प्रातं ध्यान 'योगोश्वर' को ग्रहण करते हुए उन्होंने उसके स्पष्टीकरण में केवलज्ञानादि से योग (सम्बन्ध) करा देने को तियंचगति, रौद्र ध्यान को नरकगति, धर्मध्यान को वाले धर्म व शुक्ल ध्यानो से यूक्त ऐसे योगियों ने वैमानिक देवगति और शुक्लध्यान को सिद्धगति का अथवा योगियो का ईश्वर बतलाया है। कारण समझना चाहिए । : :::::::::::::::

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