Book Title: Anekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 291
________________ उत्तर पचाल की राजधानी पहिण्यत्र ही दर्शक का हृदय हषोंफुल्ल हो जाता था। अहिच्छत्र कंठस्थ हो जाया करते थे। अतः उन्हें देवागमः स्तोत्र में भी मूर्तियों का निर्माण होता था। जैसा कि हरिषेण कंठस्थ हो गया। वे उसका अर्थ विचारने लगे। उससे कथा कोष की १२वीं कथा से जान पड़ता है। प्रतीत हपा कि भगवान ने जीवादिक पदायों का जो अहिच्छत्र के विद्वान पात्र केसरी स्वरूप कहा है, वह सत्य है । पर अनुमान के सम्बन्ध में अहिछत्र के निवासी पात्रकेसरी ब्राह्मण विद्वान उन्हें कुछ सन्देह हमा। वे घर पर यह सोच ही रहे थे थे। जो वेद वेदाग प्रादि में निपुण थे। उनके पाचसो कि पद्मावती देवी का पासन कम्पायमान हुमा । वह वहाँ विद्वान शिष्य थे । जो अवनिपाल राजा के राज्य कार्य में पाई और उसने पात्र केसरी से कहा कि भापको जनधर्म सहायता करते थे। उन्हे अपने कुल (ब्राह्मणत्व) का के सम्बन्ध में कृछ सन्देह है। माप इसकी चिन्ता न करे। बडा अभिमान था। पात्र केशरी प्रात: और सायंकाल कल भापको सब ज्ञात हो जावेगा। वहां से पद्मावतीदेवी संध्या वन्दनादि नित्य कर्म करते थे और राज्य कार्य को पाश्वनाथ के मन्दिर मे गई। और पावनायक मूति जाते समय कौतूहलवश वहाँ के पार्श्वनाथ मन्दिर मे उनकी के फण पर निम्न श्लोक अंकित किया। प्रशान्त मुद्रा का दर्शन करके जाया करते थे। एक दिन "अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । उस मन्दिर में चारित्रभूषण नाम के मुनि भगवान पार्श्व- नान्यथानुपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥" नाय के सन्मुख 'देवागम स्तोत्र' का पाठ कर रहे थे। प्रात:काल जब पात्र केसरी ने पाश्वनाथ मन्दिर मे पात्रकेसरी सध्या वन्दनादि कार्य सम्पन्न कर जब वे प्रवेश किया तब वहां उन्हे फण पर भकित वह श्लोक पार्श्वनाथ मन्दिर मे पाये, तब उन्होंने मुनि से पूछा कि किवाई दिया। उन्होंने उसे पढकर उस पर गहरा विचार प्राप प्रभी जिस स्तवन का पाठ कर रहे थे। क्या उसका किया, उसी समय उनकी शंका निवृत्त हो गई। भौर प्रर्थ भी जानते है । तब मुनि ने कहा मैं इसका अर्थ नही ससार के पदार्थों से उसकी उदासीनता बढ़ गई। उन्होने जानता। तब पात्रकेसरी ने कहा, पाप इस स्तोत्र का विचार किया कि प्रात्म-हित का साधन वीतराग पूनः एक वार पाठ करे। मुनिवर ने उसका पाट पुनः मुद्रा से ही हो सकता है। और वही प्रात्मा का सच्चा धीरे-धीरे पढ़कर सुनाया। पात्र केसरी की धारणा शक्ति । स्वरूप है। जैनधर्म मे पात्रकेसरी की प्रास्था अत्यधिक बडी विलक्षण थी। उन्हें एक बार सुनकर ही स्तोत्रादि सुदृढ हो गई । और उन्होंने दिगम्बर मृद्रा धारण कर १. हरिषेण कथा कोष। ली। प्रात्म साधना करते हुए उन्होने विभिन्न देशों में २. विप्र वशाग्रणी : सूरिः पवित्रः पात्र केशरी । विहार किया और जैन धर्म को प्रभावना की। स जीयर्याज्जिन-पादाब्ज-सेवनक मधुवतः ।। पात्र केसरी दर्शनशास्त्र के प्रौढ विद्वान थे। उनकी -सुदर्शन चरित्र दो कृतियो का उल्लेख मिलता है। उनमे पहला ग्रंथ भूभतादानुवर्ती सन् राजमेवापरांगमुखः । विलक्षण कदर्थन है। जिसे उन्होने बौद्धाचार्य दिङ्नाग सयतोऽपि च मोक्षार्थी भात्यसो पात्रकेशरी ॥ द्वारा प्रस्थापित अनुमान विषयक हेतु के रूपात्मक लक्षण -नगरतानुकशिलालेख का खण्डन करने के लिए बनाया था इससे हेतु के रूप्य ३. निवासे सारसम्पत्ते देशे श्रीमगघामिधे । का निरसन हो जाता है। यद्यपि यह ग्रन्थ इस समय पहिच्छत्रे जगच्चित्र नागरनगरे वरे ॥१८॥ अनुपलब्ध है किन्तु वह अन्य बौद्ध विद्वान शान्तिरक्षित पुण्यादवनिपालाख्यो राजा राजकलान्वितः । और कमलशील के समय उपलब्ध था। और अकलंकप्रान्तं राज्यं करोत्युच्च विप्रैः पञ्चशतव्रतः ॥१६॥ देवादि के समय भी रहा था । तत्वसंग्रहकार शान्ति विप्रास्ते वेद वेदाङ्ग पारगाः कुलगविताः। रक्षित ने तो पृ० ४०४ में तो उसका खडन करने का areai मध्या च निरंतरम् ।२०। प्रयल किया है। पात्रकेसरीने उक्त 'त्रिलक्षकदर्थन' में हेत -माराधना कथाकोष बप्य का युक्ति पुरस्सर खंडन किया था। इस कारण

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