Book Title: Anekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 269
________________ नवन में प्रात्म-सत्व विचार जिसे मन्य दर्शनों में सूक्ष्म शरीर कहा गया है उसी को देह परिमाण स्वीकार करके, उसे संकोच विस्तार गुण जैन दर्शन में कार्मण शरीर कहा गया है। यही कार्मण वाला माना है। शरीर के कारण प्रात्मा के प्रदेशों में सकोच विस्तार इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि संसारी मात्मा होता है। यद्यपि प्रात्मा स्वभाव से प्रमूर्तिक है किन्तु देहपरिमाण ही है और वह पूरे शरीर मे ही व्याप्त होकर मनादिकाल से कर्मों के साथ रहने के कारण कथंचित् रहता है। शरीर के बाहर मात्मा के गुण उपलब्ध न मूर्तिक भी है। इसलिए कर्म के अनुसार ससारी प्रात्मा होने से प्रात्मा शरीर के बाहर नहीं रहता है। मतः को जैसा शरीर उपलब्ध होता है उसे उसी में रहना प्रात्मा देहपरिमाण ही है। कहा भी हैपड़ता है । यहा तक कि चीटी की प्रात्मा हाथी के शरीर सुखमाल्हावनाकारं विज्ञानं मेयबोधनम् । में [विसर्पण शक्ति के कारण पूर्व जन्म में] व्याप्त होकर शक्तिक्रियानुमेया स्याव्यनः कान्ता समागमे । रह सकता है और इसी प्रकार हाथी (कर्म के अनुसार माक्षेप और परिहार मृत्यु के बाद) की मात्मा चीटी के शरीर में रह सकता सभी भारतीय दर्शनों ने इस सिद्धान्त की तीव्र है। जब तक कार्मण शरीर रहता है तब तक ससारी मालोचना की है। संक्षेप मे कुछ प्राक्षेपों का विवेचन मात्मा में संकोच विस्तार अवश्य ही होता रहता है। किया जाता हैकिन्तु जब कार्मण शरीर के साथ नहीं होता है उस समय (१) यदि मात्मा संकोचविस्तार शक्ति युक्त है तो मात्मा मे संकोच विकास नहीं होता है। यही कारण है वह सिकुड़ते-सिकुड़ते इतना छोटा क्यों नहीं हो जाता है कि मुक्त प्रास्मा कार्मण शरीर से रहित होने के कारण कि प्राकाश के एक प्रदेश में एक ही जीव रह सके ? संकोच विस्तार की परिक्रमा से रहित होती है । मुक्ता और इसी प्रकार 'विसर्पण' शक्ति के कारण सम्पूर्ण लोक में वस्था में प्रात्मा अपने स्वाभाविक स्वरूप को प्राप्त कर (लोकाकाश और प्रलोकाकाश) क्यों नही फैल जाता लेता है। इसलिए ससारी प्रात्मा में ही कार्मण शरीर के है? प्रथम प्रश्न का उत्तर यह है कि प्रात्मा कामण शरीर कारण सकोच विस्तार होता है। किन्तु केवली समुदघात के कारण असकुचित होता है और कार्मण शरीर छोटा से अवस्था की दृष्टि से प्रात्मा तीनो लोकों में व्याप्त हो छोटा अगुल के असंख्यातवें भाग के बराबर ही हो सकता सकता है। इसी तरह से ज्ञान की दृष्टि से भी प्रात्मा है, इसलिए जीव इससे छोटा नही हो सकता है। जीव को सर्वव्यापक जैन दर्शन मे माना गया है। क्योकि जैन कांड' में प्रगुल के असख्यातवे भाग शरीर परिमाण वाला दर्शन में ज्ञान और प्रात्मा को भिन्न-भिन्न न मानकर जीव मूक्ष्म निगोदियालब्धपर्याप्तक बतलाया गया है। अभिन्न माना गया है । ज्ञान एवंगत है इसलिए इस दृष्टि इससे छोटा कोई जीव नही होता है । इसी प्रकार विसर्पण से प्रात्मा सर्वव्यापक है। शक्ति के कारण प्रात्मा अपने को लोकाकाश तक ही विस्तृत कर सकता है। क्योकि लोकाकाश के बराबर ही मगर यहां पर ध्यान देने की बात यह है कि इसके जीव के प्रदेश होते है। इसलिए स्वयंभूरमण समुद्र के मध्य विपरीत रामानुजाचार्य ने 'ज्ञान' की दृष्टि से प्रात्मा को में रहने वाला महामत्स्य, जो कि हजार योजन लम्बा १. पुंसा संहार विस्तरो संहारे कर्मनिमित्तौ । पाँचसौ योजन चौड़ा और ढाई सौ योजन मोटा होता है। तत्त्वानशासन २३२ सबसे बड़ा जीव है, इससे बड़ा कोई जीव नहीं होता है। २. पञ्चास्तिकाय गाथा ३२-३३, तत्त्वार्थ श्लोक मलोकाकाश तक जीव के फैलने का दूसरा कारण वहाँ वातिक पृ० ४००। 'धर्म' द्रव्य का प्रभाव है। ३. मुक्तो तु तस्य तो नएत: क्षयातर्खतुकर्मणाम् । तत्वानुशासन श्लो० २३२ ६. अनन्तवीर्य-प्रमेयरत्नमाला १० २९७ ४. स्यावाद मञ्जरी १०३ । ७. गोम्मटसार जीव कांड गाथा १४ ५. प्रवचनसार १०२३-२७ । ८. वही गाथा १५

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