Book Title: Anekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 272
________________ २५०, वर्ष,कि०६ अनेकान्त यहाँ बड़ा भारी मेला होता था। यहां सोलह सौ गण. चचा--चंप चमेली मोगरो, मधुमालती सुगंध । पतियों की पूजा होती थी तथा पीर पैगम्बर प्रादि और केलि के बड़ो केतकी, जाबिचि गढ रणथभ ।।६।। पूजे जाते थे। इस किले के पास मे ही शेरपुरा, खिलची. छछा--छाया सीजल वृक्ष की, राज बाग को मोज । पुरा, माधोपुर, पालणपुर मादि गाँव थे तथा चारों पोर होद कवल परवण कली जाणि सुकल की दोज ।७। पहाड पर परकोटा था एवं यह किला सब किलो का जजा--जगत सगवत है सबै, धन्य कहत सब देस । सरताज था। सके ग्राम दाडिम सरस, नागी अघ वेस ।।८।। यद्यपि रचना में कोई रचनाकाल नही दिया है किंतु मझा--कहां दणवत बजरगबनी चैन तलाई ढोर । सम्भवतः यह रचना वि० सं० १७८३ अर्थात् जयपुर सदा विराजत है त। खेतर पाल पोर ।।।। बसने की बाद की तो निश्चित ही है। इसमें अन्तिम नना--नोवत बाजत है तहां, पर बाजत सहनाय । ३३३ दोहे में महाराज जयसिंह के शासनकाल मे किले छोटी बड़ी असा है, हमीर के चढनाय ॥१०॥ पर उनकी अोर से किलेदार रखा जाना प्रतीत होता है। टटा-टोटा नहीं भंडार में भरेज दोन्यू खास । हवा महल के सदृश महलों की उपमा तथा जयपुर के जोरा भरा है दौर गपति गग को वाम ॥११ । जलेब चौक के सदृश वहां भी महलों के समीप मे जलेब ठठा-ठाकुर । मिदर वहाँ लिखमीपति रघनाथ । चौक बतलाना इसके प्रमाण है। रामलाल गोपाल जी विक्ट विहारी नाथ ।।१२।। रचना ढूंढारी भाषा में है। शब्दो का चयन बर्ड डडा--डंडोवन करिये सदा मरलीघर चित लाय । सुन्दर ढंग से किया गया है। शब्दों को तोड़ मरोड कर त्रिभवनपति महाराज ज ठाकुर दाने राय ॥१३॥ रखने का प्रयत्न कतई नही किया गया है।। रचना का ढढा-ढोल घडावलि बंदुभी, नोवति खानो ढीक । क्रम भी अधिक सुन्दर है। मामूली पढ़ा लिखा भी अच्छी उपमा चोक जले बकी. त सू महल नजीक ।।१४॥ तरह अर्थ को हृदयंगम कर लेता है। णणा-राणा गजा रास वे वाकै दुव ज्या बान । यह भी सम्भव हो सकता है कि उस समय मे सवाई येस भर रण धमक, वाकी प्राज्ञा मान ।।१५।। माधोपुर से जैनों के कई मन्दिर भ्रष्ट हो गये थे और तता-ताल जंगाली पदम लो सागराणी होद । उसी साम्प्रदायिक विवेक के कारण रचनामार मोहन बब वान बड़ी कप में, पाणी भरे कमोद ॥१॥ ब्राह्मण ने जैन मन्दिर का उल्लेख किया हो। कुछ भी हो। यया-थाडो रमणीक प्रति, जहां देवन को वास । रचना ऐतिहासिक एवं महत्वपूर्ण है अतः उसे पाठको की __ जहां देवी ककालिका, वीरमाण उजयास ॥१७॥ जानकारी के लिए ज्यों की त्यों दी जाती है। ददा-दरवाजा च्यार तरफ, प्ररसुन्दर सात पोलि । -प्रप रणतभंवर को करको लिख्यते दो वरवाजे हैं तहां, नवलख सूरज खोलि ॥१८॥ कका--कही कहं बांको विकट, किल्लो है रणथंव । घषा-धन्य बरवाजो वोह को, करयो मिसाको सोय । मासि पासि सुरंगुके, सदा बजावं बंब ॥१॥ दरवाजा सोहत सवा, माझ्या लागत मो ॥१६॥ खखा-खलकम्यान जानतसर्वे, महिमा मागम प्रगाष। नना-नरपति माधो सिंघ जी, पायो गढ रणथभ । लालो बावन गढन को, देत मरदर्दू दावि ॥२॥ प्रागण सुदि वारसि दिना, पदरा साल रंब (२).२०॥ गगा--गवरी पुत्र गणेश जी, राज रहे सुर गज । पपा-पदम रिषी सुर वहाँ तप, नीर भरत सब नारि । शिवशंकर राजत लहा, सकल सुधारत काज ।।३।। बंवा ऊपर घाट पै, कुसम बाग को भार । २१॥ घषा-घाटी चवरासी विकट, बरा ध्यार चोर । विरासा विकट, बरा व्यार चहोर। फफा-फूलत गुलतुर्ग तहां, चंप मोगरो वेस । घुपरमल भई दरो, छणि खुस्याली मोर ॥४॥ वहां राजत बजरंगबली, राजत और महेस ।।२२।। मना--नारी नर को कहा काह], चली जवी लारीत। बबा-बड़े एक सूं एक है, कमठाना अद्भुत । पंडित सान है सा और जमा महजीत ॥ ५॥ जगन्नाथ के महल है, हवा महल की सूत ॥२३॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305