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लाचार्य
परमानन्द जैन शास्त्री
लाचार्य -- यह द्रविगण के मुनियों में मुख्य ये । भोर जिन मार्ग की क्रियाओं का विधि पूर्वक पालन करते थे । पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्तियों से संरक्षित थे । उनका विधिपूर्वक भाचरण करते थे'। यह दक्षिण देश के मलय देश में स्थित 'हेम' नामक ग्राम के निवासी थे। उनकी एक शिष्या कमलश्री थी, जो समस्त शास्त्रों की ज्ञाता - श्रुत देवी के समान विदुषी थी। एक बार कर्मवशात् उनकी शिष्या को ब्रह्मराक्षस लग गया। उसकी महती पीड़ा को देखकर हेलाचार्य 'नीलगिरि' पर्वत के शिखर पर गये। वहां उन्होंने 'ज्वालामालिनी' की विधिपूर्वक साधना की। सात दिन में देवी ने उपस्थित होकर हेलाचार्य से पूछा कि क्या चाहते हो ? मुनि ने कहा, मैं कुछ नहीं चाहता । केवल कमल श्री को ग्रह मुक्त कर दीजिये । तब देवी ने एक लोहे के पत्र पर एक मंत्र लिख कर दिया और उसको विधि बतला दी। इससे उनकी शिष्या ग्रह मुक्त हो गई। फिर देवी के प्रदेश से उन्होंने 'ज्वालिनीमत' नामक ग्रंथ की रचना सम्भवतः प्राकृत भाषा में की ।
लाचार्य से वह ज्ञान उनके शिष्य गंगमुनि, नीलग्रीव, बीजाव, शान्तिरसब्बा आर्यिका और favaट्ट क्षुल्लक को प्राप्त हुआ। तथा क्रमागत
१. द्रविडगण समय मुख्यो जिनपति मार्गोपचित क्रिया पूर्णः । व्रत समितिगुप्तिगुप्तो हेलाचार्यो मुनिर्जयति ॥ १६ २. 'दक्षिणदेशे मलये हेनप्रामे मुनिर्महात्मासीत् ।
लाचार्यो नाम्ना द्रविडगणाधीश्वरो घोमान् ॥' ' तच्छिष्या कमलश्रीः श्रुतदेवी वा समस्त शास्त्रज्ञा । सा ब्रह्म राक्षसेन गृहिता रौद्रेण कर्मवशात् ॥ '
जेनग्रंथ प्र० सं०
गुरु परिपाटी और श्रविच्छिन्न सम्प्रदाय से प्राया हुमा मंत्रवाद का यह ग्रंथ कन्दर्प ने जाना और उसने गुणनन्दि मुनि के लिये व्याख्यान किया । इन दोनों ने उस शास्त्र का व्याख्यान ग्रन्थतः और अतः इन्द्रनन्दी के प्रति कहा। तब इन्द्रनन्दि ने उस प्राचीन कठिन ग्रन्थ को अपने मन में अवधारण करके ग्रन्थपरिवर्तन (भाषा परिवर्तनादि) के साथ ललित प्रार्या और गीतादि छन्दों में श्रौर साढ़ेचार सौ श्लोकों में उसकी रचना की । इन्द्रनन्दिने इसकी रचना शक सं० ८६१ ( ई० सन् ६३६ और वि. सं. १६) राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय के राज्य में मान्यखेट के कटक में प्रक्षय तृतीया को की" ।
पोन्नर की कनकगिरि पहाड़ी पर बने हुये प्रादिनाथ के विशाल जिनालय में जैन तीर्थंकरों और अन्य देवताओं की मूर्तियाँ हैं । उनमें एक मूर्ति ज्वालामालिनी देवो की है। उसके प्राठ हाथ हैं । दाहिनी भोर के हाथों में मण्डल, अभय, गदा और त्रिशूल हैं। तथा बाईं ओर के हाथों में शंख, ढाल, कृपाण और पुस्तक है। मूर्ति की प्राकृति हिन्दुनों की महाकाली से मिलती-जुलती है । पोन्नूर से लगभग तीन मील की दूरी पर नीलगिरि नाम की पहाड़ी है, उस पर हेलाचार्य की मूर्ति अंकित है ।
३. अष्टशतस्यैकषष्ठि (८६१ ) प्रमाण शक संवत्सरेष्वतीतेषु । श्रीमान्यखेट कटके पर्वण्यक्षय तृतीयायाम् ॥ शतदलसहित चतुःशत परिमाणग्रंथ रचनया युक्तं । श्रीकृष्णराज राज्ये समाप्तमेतन्मतं देव्याः ॥
४. 'जयताद्देवी, ज्वालामालिन्युद्य त्रिशूल - पाशभषकोदण्ड-काण्ड-फल- वरद-चक्र चिन्होज्वलाऽष्टभुजा || " ५. See Jainism in South India P. 47