Book Title: Anekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 241
________________ तीर्थङ्कर भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव का उद्देश्य एवं दृष्टि २२३ हम स्वयं अपने जीवन मे उन सिद्धान्तों को उतारने की दिशा में प्रयत्नशील न हो । यदि हमारे जीवन श्रीर प्राचार-व्यवहार मे महावीर के सिद्धान्त मूर्तरूप लेते है तो वह हजारों भाषण एवं सेमिनारों से ज्यादा प्रभाव शाली प्रचार होता है । दुनिया के सभी महापुरुषों के अनुयायियों अथवा भक्तो ने अपने प्राराध्य की पूजा और प्रचार को ही भक्ति मान लिया है; क्योकि यह मार्ग सरल और सस्ता है। लेकिन होना इसके विपरीत चाहिये था। भक्त की भक्ति तो श्राराध्य के बताए मार्ग पर चलने मे है न कि उनके बताये मार्ग से उलटा चलते हुए केवल उनके सिद्धान्तो के गीत गाने मे। इसमें संदेह नही कि त्याग सयम और साधना का मार्ग उच्च एवं कठिन है जिसे अपनाने की भूमिका सभी प्राणियों की एक जंसो नही होती, अपनी अपनी शक्ति श्रोर स्थिति की मजबूरिया है। लेकिन जिसको जितनी योग्यता एवं शक्ति हो उतना प्रयास तो इस दिशा में करते हुए सागे बढ़ना ही चाहिए ऐसे भी प्रसग और उदाहरण सामने प्रति है जब त्याग धर्म का उपदेश देने के पहले उसकी भौतिक आवश्यकता की पूर्ति पर ध्यान देना होता है | भगवान बुद्ध ने अपने सामने मूर्ख लोगो को उपदेश के लिए लाए जाने पर अपने शिष्यों को कहा था कि इन्हें भोजन दो फिर उपदेश । इस दृष्टि को ध्यान मे न रखा जाय तो धर्म सार्वभौम नही बन सकता । हम अन्य धर्मों से जैनधर्म एव उसके तीर्थंकरो को महान् सिद्ध करते है । तत्त्वों की गहराई एवं उच्चता धन्य दर्शन से अधिक बताते है। यह सही है लेकिन संसार के सामने प्रत्यक्ष रूप मे इसे सिद्ध करने मे हम अब तक सफल नही हुए । संसार मे अहिंसा और प्रेम के उदाहरणो मे बुद्ध, ईसा और गांधी का नाम ही बार-बार श्राता है इस गहराई से चिन्तन कर हमे पुनर्विचार करना एवं प्रावश्यक सुधार करना आवश्यक है । बौद्ध धर्म मे तत्वों घौर सिद्धान्तों के प्रचार के साथ साथ सेवा को स्थान दिया। उदारतावादी दृष्टिकोण अपनाया जिसके फलस्वरूप अनेक देश बौद्ध धर्मावलम्बी बने । यद्यपि उन देशो में एक ही बौद्ध धर्म के कुछ भिन्न-भिन्न रूप देखने को मिलते हैं लेकिन मूल उपदेश एव सिद्धान्तों में अन्तर नही । जो थोड़ी भिन्नता है वह स्थानीय वातावरण, स्थिति एवं सुविधा असुविधा के साथ बौद्ध धर्म का एकात्मक होना ही है। यदि ऐसी उदारता या सुविधा नही होती तो भारत का बौद्ध धर्म जापान चीन तिब्बत वर्मा, मलाया यादि क्यों और कैसे अपनाते ? धर्म किसी देश विशेष का होना भी तो नहीं है। ईसाइयों के प्रचार की हम भले ही कितनी भातोचना करे किन्तु उनकी सेवा की विशेषता को नकार नहीं सकते । घनघोर, जालों, प्रादिवासियों, कोढ़ियों, दुःखियों एवं दीनो मे अपना सारा जीवन समर्पित कर देने वाले पादरी वहाँ शिक्षा एव सेवा के साथ ईसा के तत्त्वों का प्रचार करते है, वह प्रचार स्थायी बनता है। ईसाई मिशनरियों की शिक्षा संस्थानों का स्तर भी ऊचा और अच्छा रहता है। कि वहा जैन समाज के कट्टर व्यक्ति भी अपने बच्चों को पढ़ने भेजने मे गौरव अनुभव करते है । हमारे कथन का श्राशय यही है कि ईसा की करुणा का शब्दो से उतना प्रचार नही हो पाता जितना सवा द्वारा पादरियो के जीवनव्यवहार से हो रहा है। भगवान महावीर की २५वी निर्वाण शताब्दी के महोत्सव को हम प्रारम-निरीक्षण एवं प्रात्मचितन का अवसर मानते है । हमे चिन्तन करना है कि जैन धर्म को क्या हमें कुछ लाख लोगो तक ही सीमित रखना है अथवा उसे जन धर्म के रूप में व्यापक, जगतारक धर्म बनाना है । भगवान महावीर विश्व-उद्धारक, विश्व कल्याणकारी तथा उनके धर्म, उनके उपदेश को विश्वधर्म बनाने की क्या योजना है? क्या इसके लिए कुछ विशिष्ट धार्मिक ग्रावारो का पालन, भक्ति, उपासना, पूजा, तपस्या अथवा व्यक्तिगत साधना ही पर्याप्त है या इससे धागे बढ़ने की भी जरूरत है । हमारी विनम्र राय में तीर्थंकर भगवान महावीर के कल्याणकारी तस्वी एवं उपदेशों का सम्यक प्रचार, अपने जीवन के प्राचार एवं जनसेवा द्वारा ही करना अधिक उपयोगी लगता है। २५वी निर्वाण शताब्दी महोत्सव की विभिन्न योजनाम्रों मोर कार्यक्रमों की नींव में ये दो मूल चोर मुख्य लक्ष्य होने चाहिए। हमारा प्राचार सच्चे जैन

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