Book Title: Anekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 265
________________ जन दर्शन में प्रात्म-तत्त्व विध र . २४३ मात्मा अनित्य हो जाता है इसलिए प्रात्मा को प्रणु परि- तरह से प्राकाश सर्वत्र व्यापक है, कोई भी ऐसा स्थान माण मानना ही उचित है ।। नहीं है जहाँ प्रात्मा न हो उसी प्रकार प्रात्मा भी सर्वत्र अण परिमाणवाद की समीक्षा व्यापक है। विभ प्रात्मा अपने कर्म के अनुसार प्राप्त (१) प्रात्मा के अणु परिमाण के सिद्धान्त की मभी भोगायतन में रहकर अपने सुख-दुखो का अनुभव करता दार्शनिको ने आलोचना की है। जैन दार्शनिको का कहना है। ग्रात्मा को सर्वत्र व्यापक मानने वाले प्रात्मा को है कि प्रात्मा को अणु परिमाण मानने पर शरीर की निष्क्रिय मानते है । आत्मा को व्यापक मानने का कारण समस्त संवेदनामो का अनुभव होना असम्भव है।' जिस यह है कि अदृष्ट प्रात्मा का गुण है जो सर्वत्र व्याप्य स्थान विशेष मे प्रात्मा रहता है सिर्फ उमी स्थान के सवे. रहता है, क्योकि सर्वत्र भोग की उपलब्धि होती है। गुण दनों का वह अनुभव कर सकेगा। इसलिए प्रात्मा को बिना गुणी के नहीं रह सकता, इससे मानना पड़ता है कि प्रणु परिमाण पानना उचित नहीं है। मात्मा व्यापक है । यदि प्रात्मा को व्यापक न माना जाय (२) अणु रूप प्रात्मा अलात चक्र के समान पूरे शरीर तो उसे या तो प्रणु परिमाण मानना पड़ेगा या मध्यम मे तीव्र गति से घूम कर समस्त शरीर मे सुख दुःखादि का परिमाण किन्तु अणु परिमाण और मध्यम परिमाण दोनों अनुभव कर लेता है। ऐसा मानना भी उचित नही है सदोष हैं इसलिए प्रात्मा को व्यापक मानना ही उचित क्योकि जिस समय प्रात्मा किसी अंग मे; चक्कर करता है। देह परिमाण सिद्धान्त मे सावयव प्रात्मा प्रनित्य हो हुप्रा पहुंचेगा; उसी समय अन्य अगों से उसका संबध जायेगा, जिससे कृत नाथ प्रकृताम्यागम दोष उत्पन्न हो मही रहेगा इसलिए वे अचेतन हो जायेगे। अतः अन्तराल जायेगा । कहा भी है :मे ही सुख का विच्छेद हो जायेगा। इसलिए प्रात्मा को सांशस्य घटवन्नामो भवत्येव तथा सति । अणु रूप मानना उचित नही है। कृतनाशाऽकृताभ्यागमयोः को वारको भवेत् ॥" (३) अणु परिमाण आत्मा मानने से युगपद दो प्रतः प्रात्मा को व्यापक मानना ही उचित है। इन्द्रियों में ज्ञान नहीं होना चाहिए, मगर नीबू का नाम व्यापक प्रात्मवाद की समीक्षा सुनते ही रसना इन्द्रिय मे विकार उत्पन्न हो जाता है। जैन दार्शनिक प्रात्मा व्यापक नही मानते है क्योकि इससे सिद्ध है कि ग्रात्मा अणु परिमाण नहीं है। अमित प्रत्यक्ष प्रमाण से अपने शरीर मे ही सुखादि स्वभाव वाले गति श्रावकाचार (४॥३-४) मे एवं स्वामी कार्तिकेय ने प्रात्मा की प्रतीति होती है, दूसरे के शरीर मे और पन्त(क:० अनु० भाग०, २३५) मे इस मत की समीक्षा की है। राल (वीच) मे प्रात्मा का अनुभव नही होता है। यदि प्रात्मा सर्वत्र व्यापक है सभी को सर्वत्र अपनी प्रात्मा की प्रतीति होने लगे तो अणु परिमाण सिद्धान्त की शांकराय ने भी कड़ी सभी सर्वज्ञ हो जायेगे एवं भोजनादि व्यवहार मे भयकर मालोचना की है। इसलिए अद्वैत और बेदान्त, न्याय- (मिश्रता) दोष होने लगेगा। प्रतः प्रत्यक्ष प्रमाण से वैशेषिक साख्य-योग, प्रभाकर और कुमारिल ने प्रात्मा सिद्ध है कि प्रात्मा व्यापक नहीं है। को प्रण परिमाण न मान कर आकाश की तरह सर्वत्र आकाशवत्सवंगतो निरशः श्रुति संयतः ॥ व्यापक (विभ) एव महापरिमाण वाला माना है। जिस पञ्चदशी ६८६ १. तत्वार्थ श्लोक वार्तिक पृ० ४०९, प्रमे० २० मा. ५. प्रकरण पञ्चिका, पृ० १५७-८ । पृ०२६५। ६. स च सर्वत्र कायोपिलम्भाद विभुः, २. प्रमेय रत्नमाला प० २६५ । परममहत परिमाण वानित्यर्थ । ३. राधाकृष्णन - भारतीय दर्शन भाग २, पृ० ५९६-७, केशव मिश्र-तर्क भाषा, पृ० १४६ ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य २।३।२६ । ७. पञ्चदशी ६८५।। ४. तस्मादात्मा महानेव नवाण पि मध्यमः । ८. प्रमेयकमलमार्तण्ड १०५७०, न्याय कुमुदचंद्र पृ. २६१

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