Book Title: Anekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 244
________________ ब्रह्म जिनदास एक अध्ययन परमानन्द जैन शास्त्री ब्रह्म जिनदास मूलसंघ सरस्वती गच्छ के विद्वान की थी। ब्रह्म जिनदास के जीवन का अधिकांश समय भट्टारक सकलकीति के कनिष्ठ (लघु) भ्राता भौर शिष्य पठन पाठन प्रौर प्रात्म-साधना के साथ साहित्य सृजन में थे। जैसा कि जंबू स्वामी चरित पोर हरिवंश पुराण को व्यतीत होता था। मालूम होता है सरस्वती का वरद प्रशस्तियों के निम्न पद्यो से स्पष्ट है हस्त इनके ऊपर था। इसी से वे विविध प्रकार के साहित्य भातास्ति तस्य प्रथितः पृथिव्यां का निर्माण कर सके। उन्होंने विभिन्न स्थानों से भ्रमण सद् ब्रह्मचारी जिनदास नामा। कर जनता को केवल सम्बोवित ही नही किया था, किन्तु तनोति तेन चरितं पवित्र उन्हे धर्मयोग में भी स्थिर किया । जैन सिद्धान्त के सूक्ष्म जम्बूदि नामा मुनि सत्तमस्य ॥२८ तत्त्वो के रहस्य का परिचय पाने की ओर उनका उतना सब्रह्मचारी गुरु पूर्वकोस्य, ध्यान नही था, जितना ध्यान काव्य, चरित, पुराण, कथा, भ्राता गुणज्ञोस्ति विश्वचित्तः । भक्ति, पूजा और रासो साहित्य रचना की ओर था। जिनेश भक्तो जिनदास नामा, पाप के बनाये हुए अनेक पद प्रचलित हैं । मैने ब्रह्मचारी कामारिजेता विदितो धरित्र्याम ॥२॥ जिनदास के गुजराती मे छपे हुए अनेक पद देखे थे, पर मैं उस समय उनको नोट नहीं कर सका । विनतियां, स्तुति, इनके माता-पिता पाटन के निवासी और हमड़ वंशी सिा पार हूमड़ वशा और पूजाएं भी उपलब्ध है । इससे उनके भक्ति रस में थे। इनकी माता का नाम शोभा और पिता का नाम विभोर होने का अनुमान लगाया जा सकता है। कर्णसिंह था। इनके पिता समृद्ध थे भोगोपभोग की सभी ब्रह्म जिनदास प्रतिष्ठाचार्य भी थे इन्होने अपने गुरु सम्पदा इन्हें सुलभ थी, फिर इन्हे सांसारिक भोग-विलास भ्राना सकलकीति के समान जिन मूर्तियों की प्रतिष्ठा की पोर धन-धान्य सम्पदा साधु जीवन के रोकने में समर्थन है। इनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियों का अन्वेषण अभी नहीं हो सके । क्योंकि अन्तर में वैराग्य को जागृति जो थी। किया गया किया गया है। अन्वेषण करने पर अनेक मति लेख उपउन्होंने उन सबका परित्याग कर अपने भाई का अनुसरण लब्ध हो सकते है । गंजबासौदा के बढेपुरा के जैन मन्दिर किया। मे ब्रह्म जिनदास के उपदेश से प्रतिष्ठित सं० १५१६ की ब्रह्म जिनदास प्राकृत-संस्कृत, गुजराती और राजस्थानी भाषा और हिन्दी से परिचित थे । बाल ब्रह्मचारी १. “तिहि अवसरे गुरु प्राविया बडाली नगर मझार रे । चातुर्मास तिहां करो शोभतोश्रावक कीघा हर्ष अपार रे। थे। इसी से उन्होने अपने को, कामारि जेता' विशेषण के प्रमीझरा पधरावियां वधाई गावे नरनार रे । साथ उल्लेखित किया है । इनका समस्त जीवन अध्ययन पौर ग्रंथ रचना में व्यतीत हुआ है । इन्होंने विविध स्थानों सकल संघ मिल वंदियां पाम्या जय जयकार रे । मे विहार कर जनता को जैनधर्म में स्थिर किया है। संवत चौदह सौ इक्यासी भला, श्रावणमास लसंत रे। सवत् १४८१ में बडाली नगर के चातुर्मास मे पूर्णिमा दिवसे कर्या मुलाचार महंत रे । 'प्रमीझरा' के पाश्वनाथ मन्दिर में भट्टारक सकलकीति x ने ब्रह्म जिनदास के अनुग्रह से, मूलाचार प्रदीप' की रचना भ्राता ना अनुग्रह थकी कीधा ग्रंथ महान रे । X

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