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२१६, वर्ष २४, कि०५
अनेकान्त
पादुका पर जैन प्राचार्य का नाम खुदा हुआ है।' अंकित है।" इसके अतिरिक्त दो श्वेत पाषाण ११७० ई. के बिजोलिया के शिलालेख के अनुसार प्राग्वाट् जाति के लोलक के पुरखे पुन्यरासि ने यहां पर वर्द्धमानस्वामी का जैन मंदिर बनवाया।" १०७६ के यहां से प्राप्त एक शिलालेख के अनुसार प्राग्वाट जाति के मथन नाम के व्यक्ति ने अपने परिवार के सदस्यों सहित मूर्ति प्रतिष्ठा की।"
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सिंहवाहिनी देवी तथा एक काले पत्थर की सिंह पर बैठी बहुत हो कलापूर्ण सिंहवाहिनी की मूर्तियाँ हैं । ग्यारहवीं शताब्दी के लेखक धनपाल अपनी कविता 'सत्यपुरीय महावीर उत्साह' में यहां के महावीर स्वामी के
मन्दिर का उल्लेख करता है। "संभव है जो प्राचीन जैन तीर्थकर की खड्गासन मूर्ति मूर्तियां, स्तंभ तथा तोरणद्वार भैरूजी के मन्दिर इन शिलालेखों से यह विदित होता है कि पोर- के समीप से प्राप्त हुए हैं, वे सब महावीर के मंदिर वाल जैन यहां पर रहते थे । पार्श्वनाथ को खड्गा- के प्राचीन अवशेष हों । ऐसा लगता है कि यह सन प्रतिमा ५२ ई० की है। यहां पर अन्य समस्त मन्दिर संगमरमर का बना हुआ हो तथा प्राचीन जैन मतियाँ भी हैं। यहां से प्राप्त जैन अपनी पूर्ण अवस्था में कला का एक अद्भुत नमूना देवियों की मूर्तियाँ कला की दृष्टि से उच्च हैं। होना चाहिए। यह मन्दिर बारहवीं शताब्दी में सरस्वती की प्रतिमा पर १०४५ का शिलालेख मुसलमानों द्वारा नष्ट कर दिया गया क्योंकि इस
मन्दिर में बाद की मूर्तियाँ नहीं मिलती। ६. संवत् १०८३ माघ सुदी १४ प्राचार्य गुणचन्द्रस्य
११६२ ई० में मुहम्मद गोरी द्वारा पृथ्वीराज इदं पाद युग्म ।
तृतीय को हराने के पश्चात् नरेणा पर देहली के १०. एपिग्राफिया इंडिका, जिल्द २६, प० ८४ सुलतानों का अधिकार हुआ । १३८८ ई० में फिरोज (श्लोक, ३६)।
तुगलक की मृत्यु के बाद मुसलमानों का साम्राज्य ११. संवत् ११३५ फागुन सुदि प्राग्वाट जात्य श्रेष्टि
छिन्न-भिन्न होने लगा। जफरखां ने जो नागौर सुजन सुत मथन सुयोर्थ पितपय भातृ माल्हा भार्या
का स्वतंत्र शासक हो गया था, नागौर का राज्य मथन सुत चाहड सहिता भार्या प्रथम मनमख बाहु. १३. संवत् ११०२ वैशाख सुदि ६ श्री नेमिनारवीय समस्त वलि देव निज श्रेयोथं प्रतिष्ठापितं ।
वालमो प्रतिष्ठा कारिति, प्रों ह्रीं श्री सरस्वती नमः । २. संवत् १०.६ वैशाख बुदि ।
१४. जैन साहित्य संशोधक, वर्ष ३, अंक १।