Book Title: Anekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 146
________________ १३४, वर्ष २४, कि०३ अनेकान्त प्रभुत्व माधार-स्तम्भों के पहुँचने के समाचार पा रहे थे। समवसरण के बाहर बने हुए मानस्तम्भ के समक्ष पहुँचे वातावरण प्राशंका और विस्मय, भय और प्रातक से तो उनके मन में एक भाव जागा-काश ! मैं यहाँ न व्याप्त था। उत्तेजना क्षण-क्षण बढ़ती जा रही थी। माया होता। प्राचार्य अपने भवन को ढहते देख रहे थे और अब प्रव- मानस्तम्भ उनके अभिमान को चुनौती देता हुमा शिष्ट भवन की सुरक्षा करने के लिए कोई न कोई उपाय आकाश में मस्तक उठाये हुए खड़ा था। उसके समक्ष करने का संकल्प उनके उद्विग्न मानस में बढ़ता जा रहा उनका अभिमान छोटा पड़ता गया । और उसके उत्ताप था। उन्होंने सकल्प का एक रूप संजोए हुए परिषद को से वह गलित होता गया। मन मे कोमलता जागी और सम्बोधित किया : अभिमान नाम शेष हो गया। उनके मन में सरलता का ___ शाश्वत धर्म के अनुयायियो ! प्राप त्रिकालदर्शी मह- उदय हुआ, विनय जागी। और जब वे मण्डप मे प्रवेश षियों के पवित्र धर्म के अनुयायी है। आपको सौभाग्य से करने लगे, तब वे विनय को साकार मूर्ति बने हुए थे । अपने महान् पूर्वजो से उत्तराधिकार में लोक कल्याणकारी वे महाप्रभु के लोकोत्तर व्यक्तित्व से अभिभत थे। न जाने धर्म पोर ज्ञान मिला है। किन्तु प्राज मायावी महावीर किस अदृश्य शक्ति से उनके हाथ स्वय अकल्पित रूप में अपनी माया विस्तार करके उम धर्म का विरोध कर रहा जुड गये । वे साप्टाग नमस्कार क रके विनय पूर्वक कहने है और उसका धर्म सूखे पत्तो मे लगी प्राग की भाति लगे-प्रभु ! क्षमा करे । मुझ अज्ञानी को क्षमा कर दे। बढता जा रहा है । वैशाली गणराज्य के कुण्डग्राम मे प्रभु कह रहे थे-माण्डव्य ! तुम्हारे मन में जो उसका जन्म हुआ। इसलिए गणराज्य के सभी निवासी ___ कोमलता उपजी है, वही तुम्हारा प्रायश्चित है। अपनत्व के व्यामोह में फंसकर उसके धर्म के अनुयायी हो माण्डव्य विगलित कठ से कहने लगे-देव ! मेरा गए है। मल्ल, यौधेय प्रादि गणसंघ भी समान शासन अपराध महान है । मुझे माप अपना उपासक ग्रहण कर पद्धति के कारण उसके भक्त हो गए है। राजगृह के पास मुझे अपना शिष्य बनाकर इन चरणों में बैठने का अवसर। मुर' सेनिय बिम्बसार, श्रावस्ती के महाराज प्रसेनजित, प्रदान कौशम्बी नरेश शतानीक, भवति नरेश चण्ड प्रद्योत, चंपा माण्डव्य ने मुनि दीक्षा ले ली और उन्हे इ द्रभूति, नरेश, दधिवाहन प्रादि अनेक नरेश उसके उपासक बन वायुभूति और अग्निभूति की पक्ति में स्थान मिला। गए हैं। वह अपने आपको केवली, सर्वज्ञ सर्वदर्शी कहता जब वे स्वस्थ होकर बैठ गये तो उन्होने देखाफिरता है। बहुत समय से मै उसका मान-मर्दन करने का - मनुष्य के कोष्ठ मे से: समन्तभद्र अपने दोनों पुत्र-सुभद्र मनुष्य क काष्ठ विचार कर रहा था। उसका दुर्भाग्य उसे अाज यहाँ ले और मणिभद्र के साथ प्रमुदित मन से बैठे हुए हैं। सारा पाया है। मैं माज उसी की समवसरण परिषद में जाकर ब्राह्मण वर्ग हाथ जोड़े हुए महाप्रभु के वचनामृत का उसे पराजित करूंगा और सारे विश्व में वैदिक धर्म की रसास्वाद कर रहा है । और महाप्रभु के महान व्यक्तित्व की शीतल छाया में सबके मन शान्त, निर्मल हो चुके हैं। पताका फहरा दूंगा। सब लोगों ने प्राचार्य के सकल्प की सराहना करके मणिभद्र के मन मे रह रह कर विराग की तरंगे जयध्वनि की। सभी को उनके अगाध पाण्डित्य पर उठती; किन्तु उसे अपने पिता के प्राग्रह के मागे विवाह विश्वास था। सभी ने उनके साथ चलने की स्वीकृति की स्वीकृत देनी पड़ी। रत्नमाला को भी अपना संकल्प दी। और बुद्ध परिवार प्राचार्य के साथ समवसरण की छोड़ना पड़ा। और एक दिन दोनों का विवाह हो गया। ओर चल दिये। प्राचार्य का अहंकार उनकी विद्वत्ता की सेठ समन्तभद्र और वसुभूति दोनो ही बड़े प्रसन्न थे। भौति ही असाधारण था। किन्तु जैसे-जैसे वे समवसरण माज मणिभद्र और रत्नमाला की सुहागरात थी। मण्डप की भोर बढ़ते गए, उनका अहंकार स्खलित होता एक सुसज्जित, सुवासित प्रकोष्ठ में स्वर्णपर्यंक फूलमालाओं गया । उन्हें मनोदौर्बल्य का अनुभव होने लगा। जब वे से अलंकृत था। पयंक पर श्वेत पाच्छादन बिछा हुम

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